ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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पूरे एक महीने के पश्चात् माधबी अस्पताल से लौटी। बरामदे मे आराम कुर्सी पर बैठी वह बाहर का दृश्य देख रही थी। सामने जहां तक दृष्टि जाती, चाय के खेत फैले हुए थे। ढलानों में एक ही दिशा में समस्त क्यारियाँ आँखों को बड़ी भली प्रतीत होती थीं। उसके अस्तपाल में रहते ये पौधे कितने बड़े हो गए थे।
विनोद उसके सामने बैठा केथू के पालतू कुत्ते से खेल रहा था। वह इन लहलहाते हुए खेतों को न देख रहा था, बल्कि उसकी दृष्टि माधवी के मुख पर थी, जिसपर पिछले दिनों के पीलेपन के स्थान पर हल्की-हल्की लालिमा आने लगी थी। गम्भीरता फिर कोमलता में परिवर्तित होती जाती थी। उसमें उन हरी-भरी पत्तियों की भाँति जीवन के चिह्न दिखाई देने लगे, जो लहलहाते पौधे पर झूल रही थीं।
कभी-कभी दोनों की दृष्टि आपस में टकराती और एक मुस्कान उनके होंठों पर खिल जाती। विनोद को बच्चे के चले जाने की चिंता न थी। उसे इस बात की प्रसन्नता थी कि माधवी सकुशल अस्पताल से लौट आई थी भगवान न करे उसे कुछ हो जाता तो वह क्या करता? यह विचार आते ही वह काँप जाता। वह उसके बिना कैसे रह सकता? उसकी बीमारी के बीच वह एक दिन भी उससे अलग न हुआ था।
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