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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'डॉक्टर! रुपया-पैसा...दुनिया की हर चीज़ मुझसे ले लेना, परन्तु माधवी...'

'ओह...यू चालल्ड! कैसी बात करते हो? तुम निश्चिन्त बैठो, मैं सँभाल लूँगी।'

डॉक्टर ने स्टेचर मँगवाया और शीघ्र माधवी को उठाकर ऑपरेशन-थियेटर में ले गई। रजनिया और केथू एक कोने में दुबककर बैठ गए। उसने देखा-वे दोनों भगवान् से हाथ जोड़कर उसकी कुशलता की प्रार्थना कर रहे थे। मानव-पीड़ा कैसे आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध जोड़ देती है! उसकी अपनी दबी हुई वेदना जाग उठी और दो मौन आँसुओं को मानवता के इस सम्बन्ध की भेंट कर वह बाहर बिछे बेंच पर आ बैठा।

उसी समय चपटे मुख की काली-कलूटी एक आसामी आदिवासी स्त्री वार्ड से निकलकर बरामदे के स्तम्भ के पास आ ठहरी। उसकी मोटी-मोटी फटी आँखों से भय झलक रहा था। मुख पर असहनीय पीड़ा के चिह्न स्पष्ट थे। पेट बढ़ जाने से उसकी कमर बिल्कुल ही छिप गई थी। वह भारी शरीर को स्तम्भ का सहारा देकर खड़ी हो गई और बरसते हुए पानी को देखने लगी।

विनोद ध्यानपूर्वक उसे देख रहा था। उस स्त्री की आँखों के सूजे हुए पपोटों से स्पष्ट हो रहा था कि उसकी आँखों में नींद आए एक समय बीत चुका है और वह इस दशा में खेतों के उस पार किसी चमकते हुए दोराहे पर उस हरजाई की खोज रही है जो उसे छोड़कर कहीं चला गया है।

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