ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
खेतों पर काम आरम्भ हो गया। कम्पनी की प्रतियोगिता में सब अधिक-से-अधिक चाय उगाना चाहते थे। कितने ही मज़दूर कम्पनी का काम छोड़कर कम वेतन में यहां आ गए।
परन्तु रुपया और निर्धन के पेट का सम्बन्ध तोड़ना इतना सरल न था। अंग्रेज़ कम्पनी ने विनोद की खेती को समाप्त करने के लिए मज़दूरों को नई सुविधाएँ देनी आरम्भ कर दीं। उनकी मज़दूरी पहले से दुगनी कर दी। कई तो लालच में आकर वापस कम्पनी के काम पर ही चले गए। पर विनोद को इस बात का कोई खेद न हुआ। वह भलीभांति जानता था कि कम्पनी की ये सुविधाएँ अधिक समय तक न चलेंगी और यदि उससे द्वेष रखकर कम्पनी वाले उनको प्रसन्न रखते हैं तो इस हार में भी उसकी जीत है। उसका अपना उद्देश्य भी तो यही था।
सावन की घटाओं के साथ ही आसाम की घाटियों में हरे-भरे खेत लहलहाने लगे। चाय की कोंपलें फूट आईं, मानो विनोद की आशाओं के पौधों में कलियां फूट आई हों। उसकी आकांक्षाएँ समय की गति पर नृत्य कर रही थीं। आशा की लालिमा हृदय-पट पर एक प्रतिबिम्ब-सा बनाती जा रही थी।
माधवी की खूब देखभाल होने लगी। स्वास्थ्य, भोजन और सावधान रहने पर उसे निरंतर भाषण दिए जाने लगे। विनोद को उसका बड़ा ध्यान रहता। रजनिया तो सवेरे से शाम तक उसके साथ रहती। भीतर-बाहर कहीं भी किसी काम पर हो, उसका मन माधवी की ओर कान विनोद की आज्ञा पर लगे रहते। फिर भी उसे एक-आध डांट मिल ही जाती।
विनोद ने चाहा कि माधवी को किसी बड़े अस्पताल में कलकत्ता भिजवा दे, परन्तु वह उसकी अनुपस्थिति में कहीं रहना नहीं चाहती थी और प्रकृति के आँचल में ही प्रकृति की कलाकृति को जन्म देना चहती थी।
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