ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
20
चुनाव का दिन आ गया। बस्ती के लोग सभा के लिए कम्पनी बाग में एकत्रित हो गए। पूरा बाग रंग-बिरंगी झण्डियों और झाड़-फानूसों से सजा हुआ था। विनोद भी अपना कोट कन्धे पर लटकाए असावधानी से उस भीड में टहल रहा था। जिधर से वह गुज़रता, लोग आदर से उसकी ओर देखते और उनके मुख खिल उठते। उसके मुख पर एक विशेष आभा थी, वह गौरव था, जो आने वाले इन्कलाब की सूचना दे रहा था।
घूमते हुए उसकी दृष्टि उस स्टेज पर जा रुकी...जहाँ कुछ ही समय पश्चात् विलियम का अफसरों की उपस्थिति में भाषण होने वाला था। विनोद और माधवी को भी इस अवसर पर आमंत्रित किया गया था; परन्तु विनोद ने वहाँ जाने से इन्कार कर दिया था और माधवी को विवशत: अकेले ही भाग लेने के लिए आना पड़ा। वह स्टेज पर एक ओर बैठी हुई भीड़ को देख रही थी।
एकाएक वह किसी को देखकर रुक गया। भीड़ से कुछ हटकर केथू और उसकी बहिन रजनिया खड़े थे। विनोद की सफलता में रजनिया का बड़ा हाथ था। उसकी आज्ञा से उस रात उसने प्राणों की बाज़ी लगाकर यह खेल खेला था। विनोद उसके पीछे चला आया; स्नेहपूर्वक रजनिया की ओर देखते हुए उसने केथू से पूछा-'सब ठीक है न?'
'जी...सबको समझा दिया है।'
'ठीक!' सांत्वना की साँस लेते हुए विनोद ने स्टेज की ओर देखा। उसी समय भीड़ को चीरती हुई दो मोटरें पंडाल के पास आकर रुकीं और कुछ अफसर नीचे उतरकर स्टेज पर आए। उनके आते ही भीड़ में तालियों की एक गूँज उठी। इस गूंज के समाप्त होते ही विलियम दूसरी मोटर से उतरकर स्टेज पर पहुँचा। उसके आगमन पर बैठे हुए अफसरों ने तालियाँ पीटीं, परन्तु सभा में एक सन्नाटा रहा और लोगों ने अपने मुख नीचे कर लिए मानो वे शोक मना रहे हों।
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