ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'दारू के नशे में बकता था। कहता था...मेरे साथ बँगले पर चलो, तुम्हें अच्छी-अच्छी चीज़ें दूँगा। मैं प्राण बचाकर भागी। बाबूजी, आप नहीं जानते वह बड़ा बदमाश है।'
'तुम इस समय कहाँ से आ रही हो?'
'घर से...भैया का खाना लेकर।' वह विनोद से अलग होते हुए बोली।
'इतनी देर से?'
'जब तैयार हो, तभी तो!'
'देखो, तुम इतनी देर तक अकेली मत घूमा करो।'
'परन्तु...'
'तुम्हारे भैया को खाना मिल जाया करेगा, तुम इसकी चिन्ता न करो!...और देखो, अच्छा हो यदि तुम हमारे यहाँ आ जाओ और वहीं रहा करो।'
'और चाचा?'
'यह केथू से निश्चय हो जाएगा।'
रजनिया चुप रही और सांत्वना की साँस लेकर झील की ओर बढ़ गई। जाते हुए उसने एक-दो बार मुड़कर देखा। विनोद वहीं खड़ा टकटकी लगाए उसीकी ओर देख रहा था। उसे यों प्रतीत हुआ मानो भगवान् ने उसका रक्षक भेज दिया था। विनोद जानता था कि रजनिया वहाँ के गाँव की गँवार लड़कियों से अलग है और उनसे सुन्दर भी। वह अभी युवावस्था की प्रथम सीढ़ियों में थी। उसका इस आयु में अकेले भटकना अच्छा नहीं...और विलियम की कुदृष्टि उसपर थी।
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