ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
18
रात का अँधेरा अपने पाँव फैला रहा था। वह एक बड़े पत्थर पर बैठकर झील में कंकर फेंकने लगा। झरने की ओर मेंढ़कों के टर्राने की आवाज़ आ रही थी।
अचानक उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी। उसने घूमकर देखा-पीछे खेतों में कोई उधर ही बढ़ा आ रहा है। उसके तेज़-तेज़ चलने से खेतों में लगे पौधे मसले जा रहे थे। वह आश्चर्य से ध्यानपूर्वक उधर देखने लगा। एकाएक आने वाले के पाँव और तेज़ हो गए। वातावरण में चीख गूँजी और कोई सरकन्डों के बीचोबीच भागने लगा। विनोद अपने स्थान से उठा और उस ओर बढ़ने लगा।
आने वाला खेत से बाहर निकला। विनोद ने ध्यान से देखा-वह कोई लड़की थी जो किसी से डरकर भाग रही थी। उसकी ओर बढ़ते हुए ऊँचे स्वर में चिल्लाया, 'कौन?'
लड़की बहुत घबराई हुई थी। उसकी साँस कुल रही थी और मुँह से आवाज़ न निकलती थी; और यदि वह लपककर उसे अपनी बाँहों में न थाम लेता तो शायद वह बेसुध होकर गिर पड़ती। उसके कोमल शरीर को सँभालते हुए वह झट से बोला-'तुम...रजनिया हो न?'
'जी, केथू की बहन, बाबूजी!' वह बड़ी कठिनाई से बोली और भयभीत दृष्टि से खेतों के उस पार देखने लगी।
'क्या है? तुम डर क्यों रही हो?'
'वह मुआ विलियम क्लब से लौट रहा था...'
'क्या किया उसने?'
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