ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'माधवी ने सिर हिलाया। उसके सिर पर रखा हुआ आँचल नीचे सरक गया। उसने दबे स्वर में मुस्कराते हुए कनखियों के उसे देखते हुए कहा-'अभी देर है।'
'किसमें?'
'डॉक्टर के बुलाने में।'
'क्यों?'
'अभी सात महीने की देर है।' यह कहते हुए वह झट से भागकर अपने बिस्तर पर जा गिरी और तकिये में मुँह छिपाकर लज्जा से मचलने लगी। विनोद अभी तक आश्चर्य से देखे जा रहा था। अभी तक वह उसके संकेत को न समझ पाया था।
एकाएक वह प्रसन्नता से उछल पड़ा और उसके पास जा बैठा। धीरे-धीरे उसकी पीठ को सहलाते हुए वह बोला-'ओह, तो यह बात है!'
माधवी चुप लेटी रही और विनोद उसकी पीठ को सहलाता रहा और आने वाले अतिथि की कल्पना करने लगा। एकाएक उसके सम्मुख वह दृश्य आ गया जब वह बर्मा जाने के लिए लाहौर स्टेशन पर विदा हो रहा था। गाड़ी छूटने में चंद ही मिनट शेष थे। ऐसे ही लजाते हुए कामिनी ने उसे एक शुभ सूचना दी थी-'नन्हा या नन्ही?' उसके मस्तिष्क पर हथौड़े की-सी चोट लगी और वह तड़प उठा। उसकी आँखों के सामने एक-एक करके अतीत की तस्वीरें उजागर होने लगीं-वह नन्हा बड़ा हो चुका होगा, और तोतली भाषा में अपनी माँ का मन बहला रहा होगा। वह कितना बड़ा अपराधी है। उसने जीवित ही उस अभागिन को नरक में फेंक दिया है!
इस मानसिक पीड़ा और बीते समय की स्मृति से बेचैन होकर वह बाहर चला आया और झील के किनारे टहलने लगा। वह सुहावना दृश्य, जो कुछ समय पहले लुभा रहा था, अब मानो काटने को दौड़ रहा था।
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