ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
हाल ही में मेरे मन में एक आदर्श चित्र जाग उठा है। शायद यह केवल स्वप्न हो, मालूम नहीं, कभी संसार में यह कार्य में परिणत होगा या नहीं। कठोर वस्तुस्थिति में रहकर मरने की अपेक्षा कभी स्वप्न देखना भी अच्छा है। बड़े बड़े सत्य, वे यदि स्वप्न हों, तो भी अच्छे हैं - निकृष्ट वस्तुस्थिति की अपेक्षा वे श्रेष्ठ हैं। अतएव आइये, हम एक स्वप्न देखें आप जानते हैं, मन में कई स्तर हैं। आप शायद बाह्य विषयनिष्ठ बुद्धिवादी हैं, सहज बुद्धि में विश्वास करनेवाले हैं, आप आचार-अनुष्ठानों की परवाह नहीं करते। आप युक्ति द्वारा परीक्षित ऐसी बातों पर विश्वास करना चाहते हैं, जिनमें कल्पना का जरा भी अवसर नहीं है और उन्हीं बातों से आप सन्तुष्ट होते हैं। इधर प्युरिटन और मुसलमान लोग हैं - ये अपने उपासनास्थल में चित्र या मूर्ति नहीं रखने देंगे। अच्छी बात है। एक और प्रकार का व्यक्ति है, वह रेखाओं, गोलाइयों, रंगों, पुष्पों तथा आकारों के सौन्दर्य द्वारा अच्छी-खासी कला चाहता है; वह मोमबत्तियों, दीपकों तथा कर्मकाण्ड के सभी चिह्नों एवं साज-सामान (अर्थात् बाह्य उपकरणों अथवा प्रतीकों) को चाहता है। आप ईश्वर को जिस प्रकार युक्तिविचार के द्वारा समझने में समर्थ होते हैं, वह भी उसी प्रकार उनको उन सब उपादानों इत्यादि के भीतर समझने में समर्थ होता है। फिर, भक्ति-निष्ठापरायण व्यक्ति है, जिसकी आत्मा भगवान् के लिये रोती है। भगवान् की पूजा तथा स्तुति को छोड़कर उसमें अन्य कोई विचार नहीं है। उसके बाद है ज्ञानी - वह इन सबके परे रहकर उनका उपहास करता है और मन में सोचता है कि 'ये कैसे मूर्ख हैं - ईश्वर के सम्बन्ध में इनकी कैसी क्षुद्र धारणाएँ हैं!'
वे एक दूसरे का उपहास कर सकते हैं, परन्तु इस संसार में सब के लिए स्थान है। इन सब विभिन्न मनों के लिए विभिन्न साधनाओं की आवश्यकता है। आदर्श धर्म कहकर यदि कोई बात हो, तो उसे उदार और विस्तृत होना उचित है, जिससे वह इन विभिन्न मनों के उपयोगी खाद्य जुटा सके। उसे ज्ञानी को दार्शनिक विचारों की दृढ़ भित्ति, उपासक को भक्त-हृदय, आनुष्ठानिक को उच्च्तम प्रतीकोपासनालभ्य समुदय भाव और कवि को जितना हो सके हृदय का उच्छ्वास और अन्यान्य प्रकृतिसम्पन्न व्यक्तियों को अन्यान्य भाव जुटाने के लिए उपयोगी होना पड़ेगा। इस प्रकार उदार धर्म की सृष्टि करने के लिए, हम लोगों को धर्मसमूह के अभ्युदय- काल में लौट जाना होगा, और उन सब को सत्य कहकर ग्रहण करना होगा।
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