ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
अतएव ग्रहण (Acceptance) ही हमारा मूलमन्त्र होना चाहिए - वर्जन नहीं। केवल परधर्म-सहिष्णुता (Tolration ) नहीं - वह अनेक समय नास्तिकता का नामान्तर मात्र है, इसलिए मैं उस पर विश्वास नहीं करता। मैं ग्रहण में विश्वास करता हूँ। मैं क्यों परधर्मसहिष्णु होने लगा? परधर्मसहिष्णु कहने से मैं यह समझता हूँ कि कोई धर्म त्रुटिपूर्ण है और मैं कृपापूर्वक उसे जीवित रहने देता हूँ। तुम जैसा या मुझ जैसा कोई आदमी किसी को कृपापूर्वक जीवित रहने देता है, यह समझना क्या ईश्वर-निन्दा करना नहीं है? अतीत के धर्मसम्प्रदायों को सत्य कहकर ग्रहण करके मैं उन सब के साथ आराधना कहूँगा। प्रत्येक सम्प्रदाय जिस भाव से ईश्वर की आराधना करता है, मैं उनमें से प्रत्येक के साथ ही ठीक उसी भाव से आराधना करूँगा। मैं मुसलमानों के साथ मस्जिद में जाऊँगा, ईसाइयों के साथ गिरजे में जाकर क्रूसविद्ध ईसा के सामने घुटने टेकूँगा, बौद्ध के मन्दिर में प्रवेश कर बुद्ध और संघ की शरण लूँगा और अरण्य में जाकर हिन्दुओं के पास बैठ ध्यान में निमग्न हो, उनकी भांति, सबके हृदय को उद्भासित करनेवाली ज्योति के दर्शन करने में सचेष्ट होऊँगा।
केवल इतना ही नहीं, जो बाद में आयेंगे उनके लिए भी हम हृदय उन्मुक्त रखेंगे। क्या ईश्वर की पुस्तक समाप्त हो गयी? - अथवा अभी भी वह क्रमश: दिव्यता का प्राकट्य कर रही है? संसार के ये दिव्य रहस्योद्घाटन एक अद्भुत पुस्तक जैसे हैं। बाईबिल, वेद, कुरान तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थसमूह मानो उसी पुस्तक के एक एक पृष्ठ हैं और उसके असंख्य पृष्ठ अभी भी अप्रकाशित हैं। मेरा हृदय उन सब के लिए उन्मुक्त रहेगा। हम वर्तमान में तो हैं ही, किन्तु अनन्त भविष्य की भावराशि ग्रहण करने के लिए भी हमको प्रस्तुत रहना पड़ेगा। अतीत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे, वर्तमान ज्ञान-ज्योति का उपभोग करेंगे और भविष्य में जो उपस्थित होंगे, उन्हें ग्रहण करने के लिए हृदय के सब दरवाजों को उन्मुक्त रखेंगे। अतीत के ऋषिकुल को प्रणाम, वर्तमान के महापुरुषों को प्रणाम और जो जो भविष्य में आयेंगे, उन सब को प्रणाम।
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