ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
हिन्दू धर्म में एक जातीय भाव देखने को मिलेगा - वह है आध्यात्मिकता। और किसी भी धर्म में - संसार के और किसी धर्मग्रन्थों में ईश्वर की परिभाषा करने में इतना अधिक बल दिया गया हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता। उन्होंने ऐसे भावों से आत्मा की संज्ञा निर्देश करने की चेष्टा की है कि कोई पार्थिवसंस्पर्श उसको कलुषित नहीं कर सकता। आत्मा अपार्थिव वस्तु है और इस अर्थ से उसमें कभी मानवीय भाव आरोपित नहीं किया जा सकता। उसी एकत्व की धारणा - सर्वव्यापी ईश्वर की उपलब्धि का सर्वत्र उपदेश मिलता है। ईश्वर स्वर्ग में वास करते हैं - आदि उक्तियाँ हिन्दुओं के निकट प्रलापोक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं - वह मनुष्य द्वारा भगवान पर मनुष्योचित गुणावली का आरोप मात्र है। यदि स्वर्ग कोई वस्तु है, तो वह अभी और यहीं मौजूद है। अनन्तकाल का एक मुहूर्त जैसा है, दूसरा कोई अन्य मुहूर्त भी वैसा ही है। जो ईश्वरविश्वासी है, वह अभी भी उनका दर्शन पा सकता है।
हमारे मत से, कुछ उपलब्धि होने पर ही धर्म का आरम्भ होता है - कुछ मतों में विश्वास करना या उन्हें युक्तियुक्त कहकर स्वीकार करना अथवा प्रकाश्य भाव से उन्हें अपना धर्ममत कहकर व्यक्त करना - इनमें से कोई भी धर्म नहीं हैं। आप कह रहे हैं, ''ईश्वर हैं'' - ''क्या आपने उन्हें देखा है?'' यदि कहें, 'नहीं,'' तब आपको उस पर विश्वास करने का क्या अधिकार है? और यदि आपको ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में कोई सन्देह हो, तो उन्हें देखने के लिए प्राणपण से कोशिश क्यों नहीं करते? आप संसार त्यागकर इस उद्देश-सिद्धि के लिए सारा जीवन क्यों नहीं लगा देते? त्याग और आध्यात्मिकता - ये दोनों ही भारत के महान् आदर्श हैं - और इनको जकड़ रहने के कारण ही उसमें इतनी भूलभ्रान्ति होने पर भी कुछ विशेष आता जाता नहीं। ईसाइयों का प्रचारित मूल-भाव भी यही है - ''सतर्क रहो, प्रार्थना करो - कारण, भगवान का राज्य अति निकट है।'' अर्थात् चित्तशुद्धि करके प्रस्तुत रहो। और यह भाव कभी भी नष्ट नहीं हुआ। आप लोगों को शायद स्मरण हो कि ईसाई लोग अज्ञान के अन्धकारपूर्ण दिनों (अर्थात् अन्धयुग) से ही, अति अन्धविश्वासग्रस्त ईसाई देशों में भी, औरों की सहायता करना, चिकित्सालय तैयार करना आदि सत् कार्यों द्वारा अपने को पवित्र कर ईश्वर के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जितने दिन तक वे इस लक्ष्य पर स्थिर रहेंगे, उतने दिन तक उनका धर्म जीवित रहेगा।
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