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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


धर्म के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है। सब पुराने धर्मों के आज भी जीवित रहने से प्रमाणित होता है कि उन्होंने निश्चय ही उस उद्देश्य को अटूट रखा है। उनके द्वारा अनेक गलतियाँ होने पर भी, उनके सम्मुख अनेक विघ्न-बाधाएँ होने पर भी, उनमें अनेक विवाद-विसंवाद होने पर भी, उनके ऊपर तरह तरह के अनुष्ठान और निर्दिष्ट प्रणाली के आवर्जना- स्तूप संचित होने पर भी उनमें से प्रत्येक का हृतपिण्ड ठीक है - वह जीवित हृतपिण्ड की तरह स्पन्दित हो रहा है - धकधक कर रहा है। जो महान् उद्देश्य लेकर वे आये हैं, उनमें से एक को भी वे नहीं भूले। उस उद्देश्य का अध्ययन करना महत्वपूर्ण है। दृष्टान्त-रूप मुसलमान धर्म की बात लीजिये। ईसाई धर्मावलम्बी मुसलमान धर्म से जितनी अधिक घृणा करते हैं उतनी और किसी से नहीं। वे सोचते हैं, इस प्रकार का निकृष्ट धर्म और कोई भी नहीं हुआ. किन्तु देखिये जैसे ही एक आदमी ने मुसलमान धर्म ग्रहण किया, सारे मुसलमानों ने उसकी पिछली बात को छोड़, उसे भाई कहकर छाती से लगा लिया। ऐसा कोई भी धर्म नहीं करता। यदि एक रेड इण्डियन मुसलमान हो जाय, तो तुर्की के सुलतान भी उसके साथ भोजन करने में आपत्ति न करेंगे और यदि वह शिक्षित और बुद्धिमान हो, तो राज-काज में भी कोई पद प्राप्त कर सकता है। परन्तु इस देश में मैंने एक भी ऐसा गिरजा नहीं देखा, जहाँ गोरे और काले पास पास घुटने टेककर प्रार्थना कर सकें। इस बात को विचार करके देखिये कि इस्लाम धर्म अपने सब अनुयायियों को समभाव से देखता है। इसीसे आप देखते हैं कि मुसलमान धर्म की यह विशेषता और श्रेष्ठत्व है। कुरान में बहुत जगह जीवन के विषय-सुख की बातें देखी जाती हैं। उसकी चिन्ता मत कीजिये। मुसलमान धर्म संसार में जिस बात का प्रचार करने आया है, वह है यही यथार्थ भ्रातृभाव - जो मुसलमान धर्मावलम्बी एक दूसरे के प्रति धारण करते हैं।

मुसलमान धर्म का वही सारतत्व है। जीवन तथा स्वर्ग आदि दूसरी वस्तुओं के सम्बन्ध में जो सब धारणाएँ हैं, वे मुसलमान धर्म की अपनी नहीं हैं, वे दूसरे धर्मों से ली गयी हैं।

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