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धर्म रहस्य
धर्म रहस्य
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9559
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आईएसबीएन :9781613013472 |
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
एक बार विचार कर देखिये कि इन कट्टर सम्प्रदाय-समूह में से यदि कोई भी सारे संसार में फैल गया होता, तो मनुष्यों की आज क्या दशा होती! प्रभु को धन्यवाद है कि वे सफल नहीं हुए। तथापि प्रत्येक सम्प्रदाय ही एक एक महान् सत्य को दिखा रहा है, प्रत्येक धर्म की किसी एक विशेष सार वस्तु को - जो उसका प्राण या आत्मस्वरूप है - पकड़े हुए हैं। मुझे एक पुराना किस्सा याद आ रहा है - कुछ राक्षस थे, वे मनुष्यों का वध करते और नाना प्रकार का अनिष्ट करते थे, परन्तु उनको कोई भी नहीं मार सकता था। अन्त में एक आदमी को पता लगा कि उनका प्राण कुछ पक्षियों के अन्दर है और जब तक वे पक्षी निरापद रहेंगे, तब तक उन्हें कोई भी नहीं मार सकेगा। हम सब लोगों का भी ठीक ऐसा ही एक एक प्राण-पक्षी है। उसी में हमारी प्राणवस्तु है।
हम सब का भी एक एक आदर्श - एक एक उद्देश्य है, जिसे कार्य में परिणत करना होगा। प्रत्येक मनुष्य इस प्रकार एक एक आदर्श - एक एक उद्देश्य - की प्रतिमूर्तिस्वरूप है। और चाहे कुछ भी नष्ट क्यों न हो जाय, जब तक वह आदर्श ठीक है, जब तक वह उद्देश्य अटूट है, तब तक किसी तरह से भी आपका विनाश नहीं हो सकता। सम्पदा आ सकती है या जा सकती है, विपद् पहाड़ जैसी बड़ी हो सकती है; परन्तु आप यदि वह लक्ष्य ठीक रखें, तो कुछ भी आपका विनाश नहीं कर सकता। आप वृद्ध हो सकते हैं, यहाँ तक कि शतायु हो सकते हैं, परन्तु यदि वह उद्देश्य आपके मन में उज्ज्वल और सतेज रहे, तो कौन आपको विनष्ट करने में समर्थ हो सकता है? किन्तु जब वह आदर्श खो जायगा, वह उद्देश्य विकृत हो जायगा, तब फिर आपकी रक्षा नहीं हो सकती। पृथ्वी की समस्त सम्पदा और सारी शक्ति मिलकर भी आपकी रक्षा नहीं कर सकती। और राष्ट्र क्या है - व्यष्टि की समष्टि के सिवाय और तो कुछ नहीं? इसीलिए प्रत्येक राष्ट्र का एक अपना उद्देश्य है, एक जीवनव्रत है - जो विभिन्न जाति-समूह की सुश्रृंखल अवस्थिति (जातियों के समन्वय) के लिए विशेष आवश्यक है, और जब तक वह राष्ट्र उस आदर्श को पकड़े रहेगा, तब तक किसी तरह भी उसका विनाश नहीं हो सकता। किन्तु यदि वह राष्ट्र उक्त जीवन-व्रत का परित्याग कर किसी दूसरे लक्ष्य की ओर दौड़े, तो उसका जीवन निश्चय ही समाप्त हुआ समझना चाहिए और वह थोड़े ही दिनों में मिट जायेगा।
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