ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
इसलिए इतनी संकीर्णता क्यों है, इसका कारण स्पष्ट ही दिखायी पड़ रहा है - अंश अपने को पूर्ण कहने का सर्वदा दावा करता है। क्षुद्र, ससीम वस्तु अपने को असीम कहकर सर्वदा जाहिर कर रही है। क्षुद्र- क्षुद्र सम्प्रदायों की बात एक बार विचार कर देखिये - केवल कुछ शताब्दियों से ही प्रान्त मानवमस्तिष्क से उनका जन्म हुआ है, और फिर भी उनका उद्दण्ड दावा यह है कि वे भगवान के सारे अनन्त सत्य को जान गये हैं; इस उदण्डता की कल्पना तो करो! मनुष्य कितना अहंकारी हो गया है, यही इससे मालूम होता है। इनमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि ऐसे दावे सर्वदा ही व्यर्थ हुए हैं और प्रभु की कृपा से वे सर्वदा ही व्यर्थ होंगे।
विशेषकर मुसलमान लोग इस विषय में सब से ऊपर बढ़ गये थे। उन्होंने एक एक पद अग्रसर होने के लिए तलवार की सहायता ली थी - एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार; ''या तो मुसलमान धर्म ग्रहण करो, नहीं तो मौत को अपनाओ - दूसरा उपाय नहीं है।'' इतिहास के सभी पाठक जानते हैं कि उनकी क्या भयानक उन्नति हुई थी - छ: सौ वर्ष तक कोई उनका गतिरोध नहीं कर सका। परन्तु फिर ऐसा समय आया कि जब उनको रुकना पड़ा। दूसरा कोई धर्म भी यदि ऐसा ही करे, तो उसकी भी यही दशा होगी! हम कितने शिशु हैं! हम मानव प्रकृति की बात सर्वदा ही भूल जाते हैं! अपने जीवन-प्रभात में हम सोचते हैं कि हमारा भविष्य एक असाधारण भाव से गठित हो जायगा और अपने इस विश्वास को हम किसी तरह भी दूर नहीं कर सकते, परन्तु जीवन-सन्ध्या में हमारे विचार दूसरे प्रकार के हो जाते हैं। धर्म के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है। प्रथमावस्था में जब वे जरा फैलते हैं, तब वे सोचते हैं कि कुछ वर्ष के अन्दर ही वे समस्त मानव मन को बदल देंगे। बलपूर्वक अपने धर्म को दूसरों को ग्रहण कराने के लिए वे हजारों लोगों का वध करते रहते हैं। बाद में जब वे अकृतकार्य होते हैं, तब उनकी आँखें खुलने लगती हैं। हम पाते हैं कि जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ये सम्प्रदाय अग्रसर हुए थे उसमें ये सफल नहीं हुए, उनका असफल होना ईश्वर का महान् अनुग्रह है।
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