ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
इससे देखा जाता है, कितने विभिन्न स्तर और प्रकृति के मानव-तन विद्यमान हैं - और धर्मों के ऊपर भी एक बड़ा भारी दायित्वभार है। सम्भव है कोई सज्जन दो-तीन मतों को व्यक्त कर यह कह बैठें कि उन्हीं का धर्म सब लोगों के उपयोगी है। वे एक छोटा सा पिंजड़ा हाथ में लिए हुए, भगवान के इस जगत् रूपी चिडियाखाने में आकर कहने लगे - ''ईश्वर, हाथी और सब को इस पिंजड़े के भीतर प्रवेश करना होगा। प्रयोजन होने पर हाथी के टुकड़े-टुकड़े काटकर इसके भीतर घुसना होगा।''
और शायद ऐसे भी सम्प्रदाय हैं, जिनमें कुछ अच्छे अच्छे भाव वर्तमान हैं। वे कहते है- ''सब हमारे सम्प्रदाय में सम्मिलित हों।'' '
'परन्तु वहाँ सब के लिए तो स्थान ही नहीं है!''
''कुछ परवाह नहीं, उनको काट-छाँटकर जैसे हो घुसा लो।''
''और यदि वे नहीं आयेंगे?''
''तो वे अवश्य ही नरकगामी होंगे।''
मैंने ऐसा कोई प्रचारक या सम्प्रदाय नहीं देखा, जो जरा स्थिर होकर विचार करे कि 'लोग जो हमारी बात नहीं सुनते, इसका कारण क्या है?' यह न सोचकर वे केवल लोगों को अभिशाप देते हैं और कहते हैं ''लोग बड़े पाजी हैं।'' वे एक बार भी नहीं विचारते कि 'लोग क्यों हमारी बात पर कान नहीं देते? क्यों मैं उन्हें धर्म के सत्य को बताने में समर्थ नहीं होता? क्यों मैं उनकी भाषा में बातचीत नहीं कर सकता? क्यों मैं उनके ज्ञान-चक्षु उन्मीलित करने में समर्थ नहीं होता?' असल में उन्हें इस विषय में अधिक समझ की आवश्यकता है, और जब वे देखते हैं कि लोग उनकी बात पर कान नहीं देते, तब यदि किसी को गाली देने की भी आवश्यकता हो, तो उन्हें स्वयं को ही पहले गाली देना चाहिए। किन्तु सदैव लोगों का ही दोष है! वे कभी अपने सम्प्रदाय को बड़ा बनाकर सब लोगों के लिए उपयोगी बनाने की चेष्टा नहीं करते।
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