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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


इस देश (अमरीका) में एक मरमन (Mormon) से मेरी मुलाकात हुई थी, उन्होंने मुझे अपने मत में ले जाने के लिए अनेक चेष्टाएँ की थीं। मैंने कहा था कि ''आपके मत के ऊपर मेरी बड़ी श्रद्धा है किन्तु कई विषयों में हम लोग सहमत नहीं हैं। मैं तो संन्यासी हूँ और आप बहुविवाह के पक्षपाती हैं। भला यह तो बताइये, आप अपने मत के प्रचार के लिए भारतवर्ष में क्यों नहीं जाते?'' इन बातों से विस्मित होकर उन्होंने कहा,  ''यह क्या बात है, आप तो बहुविवाह के पक्षपाती हैं नहीं और मैं हूँ। फिर भी आप मुझे अपने देश मैं जाने के लिए कहते हैं?'' मैंने उत्तर दिया, ''हाँ, मेरे देशवासी हर प्रकार के धर्म को सुनते हैं, चाहे वे किसी देश से क्यों न आये। मेरी इच्छा है कि आप भारतवर्ष में जाइये; कारण, पहले तो हम लोग अनेक सम्प्रदायों की उपकारिता में विश्वास करते हैं, दूसरे, कितने ही लोग ऐसे हैं, जो वर्तमान सम्प्रदायों से सन्तुष्ट नहीं हैं, इसीलिए वे किसी धर्म के अनुयायी नहीं हैं, सम्भव है उनमें से कितने ही आपके धर्म को ग्रहण कर लें।'' सम्प्रदायों की संख्या जितनी अधिक होगी, लोगों की धर्मलाभ करने की उतनी ही अधिक सम्भावना होगी। जिस होटल में हर प्रकार खाद्य पदार्थ मिलता है, वहीं सब लोगों की छुधा-तृप्ति की सम्भावना होती है। इसलिए मेरी इच्छा है कि सब देशों में सम्प्रदायों की संख्या बढ़े। ऐसा होने से लोगों को धार्मिक जीवन लाभ करने की सुविधा होगी।

आप यह न सोचियेगा कि लोग धर्म नहीं चाहते। मैं इस पर विश्वास नहीं करता। वे लोग जो कुछ चाहते हैं धर्मप्रचारक ठीक वह चीज उन्हें नहीं दे सकते। जो लोग जड़वादी, नास्तिक या अधार्मिक सिद्ध हो गये हैं, उन्हें यदि कोई ऐसा मनुष्य मिले जो ठीक उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें आदर्श दिखला सके, तो वे लोग भी समाज में सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक-अनुभूति-सम्पन्न व्यक्ति हो सकेंगे। हम लोगों को बराबर जिस प्रकार खाने का अभ्यास है, हम उसी प्रकार खा सकेंगे। देखिये हम लोग हिन्दू हैं, हम लोग हाथ से खाते हैं। आप लोगों की अपेक्षा हम लोगों की अँगुलियाँ अधिक चलती हैं; आप लोग हमारी तरह इच्छानुसार अँगुली को हिला नहीं सकते। केवल भोजन परोसने से ही पर्याप्त नहीं होगा, आप लोगों को उसे निजी तरीके से ग्रहण करना पड़ेगा। इसी प्रकार केवल थोड़े से आध्यात्मिक भावों को देने ही से काम नहीं चल सकता। उन्हें इस प्रकार देना होगा, जिससे आप उन्हें ग्रहण कर सकें। वे ही यदि आपको मातृभाषा  - प्राणों से भी प्रिय भाषा - में व्यक्त किये जायँ, तो आप उनसे प्रसन्न होंगे। हमारी मातृभाषा में बात करने वाले यदि कोई सज्जन आकर हमें तत्वोपदेश दें, तो उसे हम तुरन्त समझ लेंगे और बहुत दिनों तक याद रख सकेंगे। यह एक बड़ा सत्य है।

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