ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
मान लीजिये एक व्यक्ति सूर्य की ओर जा रहा है और वह जैसे जैसे अग्रसर होता जाता है, उतने ही विभिन्न स्थानों से सूर्य का फोटोग्राफ लेता जाता है। जब वह व्यक्ति लौट आयगा, तब उसके पास सूर्य के बहुत से फोटोग्राफ होंगे। यदि वह उनको हमारे सामने रखे, तो हम देखेंगे कि उनमें से कोई भी दो फोटो एक तरह के नहीं हैं, परन्तु यह बात कौन अस्वीकार कर सकेगा कि ये सब फोटो एक ही सूर्य के हैं - केवल भिन्न भिन्न स्थानों से लिये गये हैं? चार कोनों से इसी गिरजे के चार चित्र लेकर देखिये वे कितने पृथक् मालुम होंगे; तथापि वे इसी एक गिरजे की प्रतिकृतियाँ है। इसी प्रकार हम एक ही सत्य को अपने जन्म, शिक्षा और चारों ओर की अवस्थाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में देख रहे हैं। हम सत्य को ही देख रहे हैं, परन्तु इन सारी अवस्थाओं के भीतर से उस सत्य का जितना दर्शन पाना सम्भव है, उतना ही हम पा रहे हैं - उसको अपने हृदय द्वारा रंजित कर रहे हैं, अपनी बुद्धि द्वारा समझ रहे हैं और अपने मन द्वारा धारण कर रहे हैं। हमारे साथ सत्य का जितना सम्बन्ध है, हम उसका जितना अंश ग्रहण करने में समर्थ हैं, केवल उतना ही ग्रहण कर रहे हैं। इसीलिए मनुष्य-मनुष्य में भेद है, यहाँ तक कि कभी सम्पूर्ण विरुद्ध मत की भी सृष्टि होती है; तथापि सभी उस सार्वजनीन सत्य के अन्तर्निहित है। अतएव मेरी धारणा यह है कि समस्त धर्म ईश्वर की अनन्त शक्ति का केवल विभिन्न प्रकाश हं; और वे मनुष्यों का कल्याण-साधन कर रहे हैं - उनमें से एक भी नहीं मरता, एक को भी विनष्ट नहीं किया जा सकता।
जिस प्रकार किसी प्राकृतिक शक्ति को नष्ट नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार इन आध्यात्मिक शक्तियों में से किसी एक का भी विनाश नहीं किया जा सकता। आप देखेंगे कि प्रत्येक धर्म जीवित है। समय के प्रभाव से वे उन्नति या अवनति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। किसी समय या तो इनके ठाटबाट का हास हो सकता है, या कभी इनके ठाटबाट की श्रीवृद्धि हो सकती है; परन्तु उनकी आत्मा या प्राणवस्तु उनके पीछे मौजूद है, वह कभी विनष्ट नहीं हो सकती। प्रत्येक धर्म का जो चरम आदर्श है, वह कभी विनष्ट नहीं होता, इसलिए प्रत्येक धर्म ही ज्ञात भाव से अग्रसर होता जा रहा है। और वह सार्वभौमिक धर्म, जिसके सम्बन्ध में सभी देशों के दार्शनिकों ने और अन्यान्य व्यक्तियों ने कितने ही प्रकार की कल्पनाएँ की हैं, वह पूर्व से ही विद्यमान है। वह यहीं है।
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