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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


उसके बाद प्रश्न यह उठ सकता है कि संसार के ये सब विभित्र धर्म किस प्रकार सत्य हो सकते हैं? एक चीज सत्य होने पर उसका विपरीत झूठ होगा। एक ही समय दो विरोधी मत किस प्रकार सत्य हो सकते हैं? मैं इसी प्रश्न का उत्तर देना चाहता हूँ। उसके पहले मैं एक बात आपसे पूछता हूँ कि पृथ्वी के धर्म क्या सचमुच परस्पर विरोधी हैं? जिन सब बाह्य आचारों में महान विचार ढके हुए हैं, मैं उनकी बात नहीं कहता, नाना धर्म में व्यवहृत विभिन्न, मन्दिर, भाषा, क्रियाकाण्ड, शास्त्र आदि की बात नहीं करता, मैं प्रत्येक धर्म के भीतर ही प्राणवस्तु की बात कहता हूँ। प्रत्येक धर्म के पीछे एक प्राणवस्तु या आत्मा है और एक धर्म की आत्मा अन्य धर्म की आत्मा से पृथक् हो सकती है; परन्तु इसलिए क्या वे परस्पर विरोधी हैं? क्या वे परस्पर का खण्डन करते हैं या एक दूसरे की पूर्णता का सम्पादन करते हैं? यही प्रश्न है। मैं जब नितान्त बालक था, तभी से इस प्रश्न का विचार मैंने आरम्भ किया था और सारे जीवन-भर इसका विश्लेषण करता आ रहा हूँ। शायद मेरे सिद्धान्त से आपका कोई उपकार हो, इसी विचार से मैं उसे आपके निकट व्यक्त करता हूँ। मेरा विश्वास है कि वे परस्पर विरोधी नहीं है; वरन् परस्पर पूरक हैं। प्रत्येक धर्म मानो महान् सार्वभौमिक सत्य के एक एक अंश को मूर्तिमन्त करके प्रस्फुटित करने के लिए अपनी समस्त शक्ति नियोजित कर रहा है। इसलिए यह योगदान का विषय है - वर्जन का नहीं, यही समझना होगा। एक एक महान् भाव को लेकर सम्प्रदाय पर सम्प्रदाय गठित होते रहते हैं; अब इन आदर्शों का सम्मीलन करना होगा। इसी प्रकार मानव-जाति उन्नति की ओर अग्रसर होती रहती है।

मनुष्य कभी भ्रम से सत्य में उपनीत नहीं होता है, परन्तु सत्य से ही सत्य में गमन करता है; निम्नतर सत्य से उच्चतम सत्य पर आरूढ़ होता है - परन्तु भ्रम से सत्य में नहीं। पुत्र शायद पिता की अपेक्षा अधिक गुणवान् हुआ हो, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि पिता कुछ भी नहीं है। पुत्र के मध्य पिता तो है ही, किन्तु और भी कुछ है। आपका वर्तमान ज्ञान यदि आपकी बाल्यावस्था के ज्ञान से अधिक हो, तो आप अभी अपनी बाल्यावस्था को घृणा की दृष्टि से देखेंगे? आप क्या अपनी अतीतावस्था की बात को, वह कुछ नहीं है, कहकर उड़ा देंगे? क्या आप समझते नहीं हैं कि आपकी वर्तमान अवस्था उस बाल्यकाल का ही ज्ञान है? - केवल कुछ और अभिज्ञता द्वारा पुष्ट है। अब यह भी सब जानते हैं कि एक ही वस्तु को विभिन्न दृष्टि से देखने पर प्राय: विरुद्ध सिद्धान्त पर उपनीत हुआ जा सकता है, किन्तु सकल सिद्धान्त एक ही वस्तु को लक्ष्य करते हैं।

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