ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
किन्तु यह बात पूर्व से ही विद्यमान है। हममें से प्रत्येक अपने भाव से चिन्तन कर रहा है, परन्तु इस स्वाभाविक गति का निरन्तर विरोध होता रहा है, और अब भी हो रहा है। प्रत्यक्ष रूप से तलवार न ग्रहण करने पर भी विरोध के अन्य उपायों का प्रयोग होता है। न्यूयार्क के एक श्रेष्ठ प्रचारक क्या कहते हैं, सुनिये - वे प्रचार कर रहे हैं कि ''फिलिपाइनवासियों को युद्ध से जीतना होगा, कारण उनको ईसाई-धर्म की शिक्षा देने का यही एकमात्र उपाय है।'' वे पहले से ही कैथलिक-सम्प्रदाय-भुक्त हो गये हैं, परन्तु वे उनको प्रेसबिटेरियन बनाना चाहते हैं और इसके लिए वे इस रक्तपातजनित घोर पापराशि को अपनी स्वजाति के कन्धों पर रखने के लिए उद्यत हुए हैं। कैसी भयानक बात है। उस पर भी ये देश के एक सर्वापेक्षा श्रेष्ठ प्रचारक और श्रेष्ठ विज्ञ व्यक्ति हैं! जब इस तरह का एक मनुष्य सब के सामने खड़ा होकर ऐसे कदर्य प्रलाप-वाक्य कहने में लज्जा अनुभव नहीं करता, तब संसार की बात एक बार विचारिये, विशेष कर जब सुनने वाले उसको उत्साहित कर रहे हैं! क्या यही सभ्यता है? यह मनुष्यभोजी व्याघ्र और असभ्य जंगली जाति की चिर-अभ्यस्त रक्त-पिपासा के सिवाय और कुछ नहीं है, केवल नये नाम और नये परिवेश के भीतर से प्रकाशित हो रही है। सिवाय इसके और क्या हो सकता है? वर्तमान काल में यदि घटना इस प्रकार हो, तब विचार कीजिये, जब प्रत्येक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय को टुकड़े-टुकड़े कर फेंक देने की चेष्टा करता था, उस प्राचीन काल में संसार को किस भयानक यन्त्रणा का सामना करना पड़ा था। इतिहास इसका साक्षी है।
हमारे भीतर की व्याघ्रवृत्ति अभी केवल सोयी भर है - मरी नहीं है। सुयोग उपस्थित होने के साथ ही वह जागकर पहले की तरह हिंस्रभाव से आक्रमण करती है। जड़ अस्त्रों की अपेक्षा, तलवार की अपेक्षा भी भीषणतर अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। वे हैं - अवहेलना, सामाजिक घृणा और समाज से बहिष्करण। अब उन्हीं पर इन सब भीषण अस्त्रों की वर्षा होती है जो ठीक हमारी तरह नहीं सोचते। और किसलिए वे सब हमारी ही तरह सोचें? मैं तो इसका कोई कारण नहीं देखता। यदि मैं विचारशील हूँ तो मुझे इसमें आनन्दित होना उचित है कि सब मेरे भाव से भावित नहीं हैं। मैं प्रेत-भूमिसदृश देश में नहीं रहना चाहता; मैं मानव-जगत् में रहना चाहता हूँ - मनुष्यों में रहकर मनुष्य होना चाहता हूँ। विचारशील व्यक्तिमात्र में ही मतभेद रहेगा; कारण, पार्थक्य ही चिन्तन का प्रथम लक्षण है। यदि मैं चिन्तनशील हूँ तो मुझे चिन्तनशील लोगों के साथ ही रहने की इच्छा होनी चाहिए - जहाँ मत का पार्थक्य वर्तमान रहे।
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