ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
आखिरी बात यह है - इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा, 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य।' पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा - फिर श्रुत विषयों पर चिन्ता करनी होगी। हमें उन सब को अच्छी तरह विचारपूर्वक समझना होगा, जिससे हमारे मन में उनकी एक छाप पड़ जाय। इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी - जब तक कि हमारा समस्त जीवन तद्भावभावित न हो उठे। तब धर्म हमारे लिए केवल कतिपय धारणा, मतवाद-समष्टि अथवा कल्पना रूप ही नहीं रहेगा। वह हमारे में आत्मसात् हो जायगा। भ्रमात्मक बुद्धि से आज हम अनेक मूर्खताओं को सत्य समझकर ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तन कर सकते हैं, किन्तु यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता। धर्म अनुभूति की वस्तु है - वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है - चाहे वह कितनी ही सुन्दर हो। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तरु हो जाना - उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है - यह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है। समस्त मन-प्राण विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जायगा। यह धर्म है।
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