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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


नीचे का पक्षी मानो ऊपरवाले पक्षी की एक घनीभूत छाया मात्र था - केवल प्रतिबिम्ब था! वह स्वयं बराबर स्वरूपत: ऊपरवाला पक्षी ही था। नीचेवाले पक्षी का मीठा और कडुआ फल खाना और एक के बाद एक सुख और दुःख का बोध करना - सब मिथ्या - सब स्वप्न मात्र है; वह प्रशान्त, निर्वाक्, महिमामय, शोकदु:खातीत ऊपरवाला पक्षी ही सर्वदा विद्यमान था। ऊपरवाला पक्षी ईश्वर, परमात्मा - जगत्-प्रभु है और नीचेवाला पक्षी, जीवात्मा ही इस जगत् के सुख-दु:खरूपी मीठे-कडुवे फलों का भोक्ता है। बीच बीच में जीवात्मा के ऊपर प्रबल आघात आ पड़ता है; वह कुछ दिन के लिए फलभोग बन्द कर उस अज्ञात ईश्वर की ओर अग्रसर होता है - उसके हृदय में सहसा ज्ञानज्योति का प्रकाश होता है। तब वह समझता है - यह संसार केवल झूठा दृश्यजाल है, परन्तु फिर इन्द्रियाँ उसे बहिर्जगत् में उतार लाती हैं और पूर्व की भांति फिर वह जगत् के अच्छे-बुरे फलभोगों में लग जाता है। पुन: एक अत्यन्त कठोर आघात पाता है और फिर उसका हृदय-द्वार उन्मुक्त होकर उसमें ज्ञान प्रकाश करता है; इस तरह धीरे धीरे वह भगवान की ओर अग्रसर होता है और जितना ही वह अधिकतर निकटवर्ती होने लगता है, उतना ही वह देखता है कि उसके अहंकारी 'मैं' का अपने आप ही लय होता जा रहा है। जब वह खूब निकट आ जाता है, तब देख पाता है कि वह स्वयं ही भगवान है और बोल उठता है, जिनको मैंने तुम्हारे निकट जगत् का जीवन और अणु-परमाणु तथा चन्द्र-सूर्य तक के विद्यमान रहनेवाला कहकर वर्णन किया है, वे ही हमारे इस जीवन का अवलम्बन हैं, हमारी आत्माओं की आत्मा हैं। केवल यही नहीं, ''तुम ही वह हो, तत्त्वमसि'।

ज्ञानयोग हमको यही शिक्षा देता है। वह मनुष्य से कहता है, तुम ही स्वरूपत: भगवान् हो। वह मनुष्य को प्राणिजगत् के बीच यथार्थ एकत्व दिखा देता है - हममें से प्रत्येक के भीतर से प्रभु ही इस जगत् में प्रकाशित हो रहे हैं। अत्यन्त सामान्य पददलित कीट से लेकर जिनको हम सविस्मय हृदय की श्रद्धा-भक्ति अर्पण करते हैं, उन श्रेष्ठ जीवों तक सभी उस एकमात्र भगवान के प्रकाश हैं।

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