ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्थाद्वत्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति।।
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोम्नीशया शोचति मुह्यमान:।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक:।।
यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरंजन: परमं साम्बमुपैति।।
एक ही वृक्ष पर दो पक्षी हैं; एक ऊपर, एक नीचे। ऊपर का पक्षी स्थिर, निर्वाक् और महान् है और अपनी ही महिमा में विभोर है; नीचे की डाल पर जो पक्षी है, वह कभी मिष्ट और कभी तिक्त फल खा रहा है, एक डाल से दूसरी डाल पर फुदक रहा है और पर्यायक्रम से अपने को कभी सुखी और कभी दुःखी समझता है। कुछ क्षण बाद नीचे के पक्षी ने एक बहुत ही कडुआ फल खाया और साथ ही अपने को धिक्कारते हुए ऊपर की ओर दृष्टिपात किया - दूसरे पक्षी को देखा - वह अपूर्व सुनहले परवाला पक्षी न तो मीठे फल खाता है और न कडुवे; अपने को न तो दुःखी समझता है और न सुखी ही; परन्तु शान्त भाव से अपने में विभोर है; उसे अपनी आत्मा को छोड़ और कुछ भी दिखायी नहीं देता। नीचे का पक्षी इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए व्यग्र हुआ; परन्तु शीघ्र ही भूल गया और फिर फल खाने लगा। थोड़ी देर बाद फिर उसने एक बड़ा ही कडुआ फल खाया, जिससे उसके मन में बड़ा दुःख हुआ और फिर उसने ऊपर की ओर दृष्टि डाली और ऊपरवाले पक्षी के निकट जाने की चेष्टा की, परन्तु फिर भूल गया और कुछ क्षण बाद फिर ऊपर देखा। कई बार ऐसा ही करते हुए, वह ऊपर के पक्षी के बिल्कुल निकट पहुँच गया और देखा कि उसके परों से ज्योति का प्रकाश निकलकर उसकी देह की चारों तरफ पड़ रहा है। उसने एक परिवर्तन का अनुभव किया - मानो वह मिलने जा रहा है; वह और भी पास गया, देखा, उसकी चारों तरफ जो कुछ था, सब गला जा रहा है - अन्तर्हित हो रहा है। अन्त में उसने इस अद्भुत परिवर्तन का अर्थ समझा।
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