लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य

धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

13 पाठक हैं

समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


भगवान सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शास्ता और पिता-माता हैं यह कहकर उनके प्रति हृदय की सारी भक्ति और श्रद्धा अर्पण करने की ही शिक्षा भक्तियोग देता है। भाषा उनका जो सर्वश्रेष्ठ प्रकाश कर सकती है, अथवा मनुष्य उनके सम्बन्ध में जो सर्वोच्च धारणा कर सकता है, वह यह है कि वे प्रेममय हैं! 'जहाँ कहीं भी किसी प्रकार का प्रेम है, वहीं वे हैं, वहीं प्रभु विद्यमान हैं'' पति जब स्त्री को चुम्बन करता है, उस चुम्बन में भी वे विद्यमान हैं। माता जब शिशु को चुम्बन करती है, तो उसमें भी वे वर्तमान हैं। मित्रों के करमर्दन में भी प्रभु विद्यमान हैं। जब कोई महापुरुष मानव-जाति के प्रेम के वशीभूत हो उनका कल्याण करने की इच्छा करते हैं, तब प्रभु ही अपने मानवप्रेम-भाण्डार से मुक्त- हस्त होकर प्रेम वितरण करते हैं। जहाँ हृदय का विकास है, वहीं उनका प्रकाश है। भक्तियोग से इन्हीं सब बातों की शिक्षा मिलती है।

अब अन्त में मैं ज्ञानयोगी की बात की आलोचना करूँगा - वे दार्शनिक और चिन्ताशील हैं, जो इस दृश्य जगत् के परे जाना चाहते हैं - वे संसार की तुच्छ वस्तुओं को लेकर सन्तुष्ट नहीं रह सकते। प्रतिदिन के आहारादि नित्य-कर्म के परे चले जाना चाहते हैं - हजारों पुस्तकें पढ़ने पर भी उनकी शान्ति नहीं होती, यहाँ तक कि समग्र भौतिक विज्ञान भी उनको परितृप्त नहीं कर सकता, कारण वे बहुत प्रयत्न करने पर इस क्षुद्र पृथ्वी को ही ज्ञानगोचर कर सकते हैं। बाह्य ऐसा क्या है, जो उनका सन्तोष कर सके? कोटि कोटि सौरजगत् भी उनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते; उनकी दृष्टि में वे 'सत् -सन्धु में केवल एक बिन्दु हैं। उनकी आत्मा इन सब के पार - सब अस्तित्वों का जो सार है, उसी में डूब जाना चाहती है - सत्यस्वरूप को प्रत्यक्ष करना चाहती है। वे इसकी उपलब्धि करना चाहते हैं, उसके साथ तादात्म्य लाभ करना चाहते हैं, उस विराट् सत्ता के साथ एक हो जाना चाहते हैं। वे ही ज्ञानी हैं। भगवान, जगत् के पिता, माता, सृष्टिकर्ता, रक्षाकर्ता, पथदर्शक इत्यादि वाक्यों द्वारा भगवान की महिमा प्रकाश करने में वे असमर्थ हैं। वे सोचते हैं, भगवान उनके प्राणों के प्राण, आत्मा की आत्मा हैं; भगवान उनकी ही आत्मा हैं; भगवान को छोड़कर और कोई भी वस्तु नहीं है। उनका समुदय नश्वर- अंश विचारों के प्रबल आघात से चूर्णविचूर्ण होकर उड़ जाता है। अन्त में जो सचमुच ही विद्यमान रहता है वही स्वयं भगवान है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book