ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
अब इसके बाद, भावुक और प्रेमी लोगों के लिए भक्तियोग है। भक्त चाहते हैं, भगवान से प्रेम करना। वे धर्म के अंगस्वरूप क्रियाकलापों की सहायता लेते हैं और पुष्प, गन्ध, सुरम्य मन्दिर, मूर्ति इत्यादि नाना प्रकार के द्रव्यों से सम्बन्ध रखते हैं। आप लोग क्या यह कहना चाहते हैं कि वे भूल करते हैं? मैं आप से एक सच्ची बात कहना चाहता हूँ वह आप लोगों को - विशेषकर इस देश में - स्मरण रखना उचित है। जो सब धर्मसम्प्रदाय अनुष्ठान और पौराणिक तत्त्व-सम्पद् से समृद्ध है, विश्व के श्रेष्ठ आध्यात्मिक-शक्ति-सम्पन्न महापुरुषों ने उन्हीं सम्प्रदायों में जन्म ग्रहण किया है। और जो सब सम्प्रदाय, किसी प्रतीक या अनुष्ठानविशेष की सहायता बिना ही भगवान की उपासना की चेष्टा करते हैं, जो धर्म की सारी सुन्दरता, महानता तथा और सब कुछ निर्मम भाव से पददलित करते हैं, अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर भी उनका धर्म केवल कट्टरता है, शुष्क है। जगत् का इतिहास इसका ज्वलन्त साक्षी है। इसलिए इन सब अनुष्टानों तथा पुराणों आदि को गाली मत दीजिये। जो लोग इन्हें लेकर रहना चाहते हैं, उन्हें रहने दीजिये। आप व्यर्थ ही व्यंगात्मक हँसी हँसकर यह मत कहिये कि ''वे मूर्ख हैं, उन्हें उसी को लेकर रहने दो।'' यह बात कदापि नहीं है; मैंने जीवन में जिन सब आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न श्रेष्ठ महापुरुषों के दर्शन किये हैं वे सब इन्हीं अनुष्ठानादि नियमों के माध्यम से अग्रसर हुए हैं। मैं अपने को उनके पैरों तले बैठने के योग्य भी नहीं समझता और उस पर भला मैं उनकी समालोचना करूँ? ये सब भाव मानव-मन में किस तरह कार्य करते हैं और उनमें से कौन-सा हमारे लिए ग्राह्य है तथा कौन-सा त्याज्य है, इसे मैं कैसे समझूँ? हम उचित-अनुचित न समझते हुए भी संसार की सारी वस्तुओं की समालोचना करते रहते हैं।
लोगों की जितनी इच्छा हो, उन्हें इन सब सुन्दर उद्दीपनपूर्ण पुराणादि को ग्रहण करने दीजिये; कारण आपको सर्वदा स्मरण रखना उचित है कि भावुक लोग सत्य की कुछ नीरस परिभाषा-मात्र को लेकर रहना बिल्कुल पसन्द नहीं करते। भगवान उनके निकट 'धरने-छूने की' वस्तु है, मूर्त वस्तु है, वही एकमात्र सत्य वस्तु है। उसे वे अनुभव करते हैं, उससे वे बात सुनते हैं, उसे वे देखते हैं, उससे वे प्रेम करते हैं। वे अपने भगवान को ही लेकर रहें। आपका युक्तिवाद भक्त के निकट उसी प्रकार निर्बोध है जैसे कोई व्यक्ति एक सुन्दर मूर्ति को देखते ही उसे चूर्ण कर यह देखना चाहे कि वह किस पदार्थ से निर्मित है। भक्तियोग उनको निःस्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है। कोई गूढ़ अभिसन्धि न रहे। लोकैषणा, पुत्रैषणा, वित्तैषणा कोई भी इच्छा न रहे। केवल भगवान से अथवा जो कुछ मंगलमय है, उसीसे केवल प्रेम के लिए प्रेम करना प्रेम ही प्रेम का श्रेष्ठ प्रतिदान है और भगवान ही प्रेमस्वरूप हैं - यही भक्तियोग की शिक्षा है।
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