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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


दूसरी बात यह है कि जो जहाँ पर है, उसको वहीं से ऊपर उठाने की चेष्टा करो। यदि यह सत्य है कि ईश्वर सब धर्मों के केन्द्र-स्वरूप है और हममें से प्रत्येक एक एक व्यासार्ध से उनकी ओर अग्रसर हो रहा है, तो हम सब निश्चय ही उस केन्द्र में पहुँचेंगे और सब व्यासार्धों के मिलनस्थान में हमारे सब वैषम्य दूर हो जायेंगे। परन्तु जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते तब तक वैषम्य कदापि दूर नहीं हो सकता। सब व्यासार्ध एक ही केन्द्र में सम्मिलित होते हैं। कोई अपने स्वभावानुसार एक व्यासार्ध से अग्रसर होता है और कोई किसी दूसरे व्यासार्ध से। इसी तरह हम सब अपने व्यासार्ध द्वारा आगे बढ़ें, तब अवश्य ही हम एक ही केन्द्र में पहुँचेंगे। कहावत भी ऐसी है कि ''सब रास्ते रोम में पहुँचते हैं।''

प्रत्येक अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ रहा है और पुष्ट हो रहा है - प्रत्येक व्यक्ति उचित समय पर चरम सत्य की उपलब्धि करेगा; कारण, अन्त में देखा जाता है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शिक्षक है। तुम क्या कर सकते हो और मैं भी क्या कर सकता हूँ? क्या तुम यह समझते हो कि तुम एक शिशु को भी कुछ सिखा सकते हो? नहीं, तुम नहीं सिखा सकते, शिशु स्वयं ही शिक्षा लाभ करता है - तुम्हारा कर्तव्य है सुयोग देना और बाधा दूर करना। एक वृक्ष बढ़ रहा है। क्या तुम उस वृक्ष को बढ़ा सकते हो? तुम्हारा कर्तव्य है, उस वृक्ष के चारों ओर घेरा बना देना, जिससे चौपाये उस वृक्ष को कहीं न चर डालें, बस वहीं तुम्हारे कर्तव्य का अन्त हो गया - वृक्ष स्वयं ही बढ़ता है। मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का रूप भी ठीक ऐसा ही है। न कोई तुम्हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। तुमको स्वयं ही शिक्षा लेनी होगी - तुम्हारी उन्नति तुम्हारे ही भीतर से होगी।

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