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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


बाहरी शिक्षा देनेवाले क्या कर सकते हैं? वे ज्ञानलाभ की बाधाओं को थोड़ा दूर कर सकते हैं, बस! वहीं उनका कर्तव्य समाप्त हो जाता है। इसीलिए यदि हो सके, तो सहायता करो; नहीं तो विनाश मत करो। तुम इस धारणा का त्याग करो कि तुम किसी को आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न कर सकते हो। यह असम्भव है। यह स्वीकार करो कि तुम्हारी आत्मा को छोड़ तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं है। फिर देखो क्या फल मिलता है। समाज में हम भिन्न भिन्न प्रकार के लोगों को देखते हैं, संसार में सहस्रों प्रकार के मन और संस्कार के लोग वर्तमान हैं - उन सब का सम्पूर्ण सामान्यीकरण (Generalisation ) असम्भव है, परन्तु हमारे प्रयोजन के लिए उनको चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम, कर्मठ व्यक्ति, जो कर्मेच्छुक है। उसके स्नायुओं और मांसपेशियों में विपुल शक्ति है। उसका उद्देश्य है काम करना, अस्पताल तैयार करना, सत्कार्य करना, रास्ता बनाना, कार्यप्रणाली स्थिर करके संघबद्ध होना। द्वितीय है भावुक, जो उदात्त और सुन्दर को सर्वान्तःकरण से प्रेम करता है। वह प्रकृति के मनोरम दृश्यों का उपभोग करने के लिए सौन्दर्य का चिन्तन करता है; और प्रेममय भगवान् की पूजा करने के लिए प्रेम करता है। वह विश्व के तमाम महापुरुषों और भगवान के अवतारों पर विश्वास करते हुए सब की सर्वान्तःकरण से पूजा करता है, सब से प्रेम करता है। ईसा मसीह और बुद्ध यथार्थ में थे या नहीं, इसके प्रमाणों की वह परवाह ही नहीं करता। ईसा मसीह का दिया हुआ 'शैलोपदेश कब प्रचारित हुआ था? अथवा श्रीकृष्ण ने कौन-सी तारीख को जन्मग्रहण किया था? - इसकी उसे चिन्ता नहीं। उसके निकट तो उनका व्यक्तित्व, उनकी मनोहर मूर्तियाँ ही रुचि का विषय हैं, यही उसका आदर्श है, एक प्रेमी, भावप्रवण मानव का यही स्वभाव है। तृतीय, योगमार्गी व्यक्ति, जो अपना आत्मविश्लेषण करना और मनुष्य के मन की क्रियाओं को जानना चाहता है। मन में कौन कौन शक्ति काम कर रही है और उन शक्तियों को पहचानने का या उनको परिचालित करने का अथवा उनको वशीभूत करने का क्या उपाय है? - यही सब जानने को वह उत्सुक रहता है। चतुर्थ, दार्शनिक, जो प्रत्येक विषय का भाव ग्रहण करना चाहता है, प्रत्येक विषय की परीक्षा करना चाहता है - और अपनी बुद्धि द्वारा, मानवीय दर्शन द्वारा जहाँ तक जाना सम्भव है, उसके भी परे जाने की इच्छा रखता है।

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