ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
हम सब ईश्वर-प्राप्ति की चेष्टा कर रहे हैं। पात्रों में जो जल भरा हुआ है, ईश्वर उसी जल के समान हैं - प्रत्येक पात्र में भगवद्दर्शन उस पात्र के आकार के अनुसार है, फिर भी वे सर्वत्र एक ही हैं - वे घट घट में विराजमान हैं। सार्वभौमिक भाव का भी हम यही एकमात्र परिचय पा सकते हैं। सैद्धान्तिक दृष्टि से यहाँ तक तो सब ठीक है। परन्तु धर्म के समन्वय विधान को कार्यरूप में परिणत करने का भी क्या कोई उपाय है? हम देखते हैं - 'सब धर्ममत सत्य हैं', यह बात बहुत पुराने समय से ही मनुष्य स्वीकार करते आये हैं। भारतवर्ष, अलेक्जेण्ड्रिया, यूरोप, चीन, जापान, तिब्बत, यहाँ तक कि अमेरिका आदि स्थानों में भी सर्ववादीसम्मत एक धर्ममत गठन करके सब धर्मों को एक ही प्रेम-सूत्र में ग्रथित करने की सैकड़ों चेष्टाएँ हो चुकीं - परन्तु सब व्यर्थ हुईं, क्योंकि उन्होंने किसी व्यावहारिक प्रणाली का अवलम्बन नहीं किया। संसार के सभी धर्म सत्य हैं, यह तो अनेकों ने स्वीकार किया है - परन्तु उन सब को एकत्र करने का उन्होंने कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाया, जिससे वे इस समन्वय के भीतर रहते हुए भी अपनी विशिष्टता को बचा रखें। वही उपाय यथार्थ में कार्यकारी हो सकता है, जो किसी धर्मावलम्बी व्यक्ति की विशिष्टता को नष्ट न करते हुए, उसको औरों के साथ सम्मिलित होने का पथ बता दे। परन्तु अब तक जिन जिन उपायों से धर्म-जगत् में एकता-विधान की चेष्टा की गयी है, उनमें 'सभी धर्म सत्य हैं', यह सिद्धान्त मान लेने पर भी ज्ञात होगा कि यथार्थ में उसको कुछ निर्दिष्ट मतविशेषों में आबद्ध रखने की चेष्टा की गयी है और परिणामस्वरूप कितने ही परस्पर झगड़नेवाले ईर्ष्यापरायण नये नये दलों की सृष्टि हो गयी है।
मेरी भी एक छोटीसी कार्यप्रणाली है। मैं नहीं जानता कि वह कार्यकारी होगी या नहीं, परन्तु मैं उसको विचारार्थ आपके सामने रखता हूं। मेरी कार्यप्रणाली क्या है? सर्वप्रथम मैं मनुष्यजाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूँ कि कुछ नष्ट न करो। विनाशक सुधारक लोग संसार का कुछ भी उपकार नहीं कर सकते। किसी वस्तु को भी तोड़कर धूल में मत मिलाओ, वरन् उसका गठन करो। यदि हो सके तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो, मामला कहाँ तक जाता है। यदि सहायता न कर सको, तो अनिष्ट मत करो। जब तक मनुष्य कपटहीन रहे, तब तक उसके विश्वास के विरुद्ध एक भी शब्द न कहो।
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