ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
यह अनन्तकाल से वर्तमान है और अनन्तकाल तक रहेगा। भगवान् ने कहा है - ''मयि सर्वमिदं प्रोतं, सूत्रे मणिगणा इव।'' - ''मैं इस जगत् में मणियों के भीतर सूत्र की भांति वर्तमान हूँ,' - प्रत्येक मणि को एक विशेष धर्म, मत या सम्प्रदाय कहा जा सकता है। पृथक् पृथक् मणियाँ एक एक धर्म हैं और प्रभु ही सूत्ररूप से उन सब में वर्तमान हैं। तिस पर भी अधिकांश लोग इस सम्बन्ध में सर्वथा अज्ञ हैं।
बहुत्व के बीच में एकत्व का होना सृष्टि का नियम है। हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी परस्पर पृथक् हैं। मनुष्यजाति के अंश के रूप में हम और आप एक हैं, किन्तु जब हम व्यक्तिविशेष होते हैं, तब हम आपसे पृथक् होते हैं। पुरुष होने से आप स्त्री से भिन्न हैं, किन्तु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं। मनुष्य होने से आप जीवजन्तु से पृथक् हैं, किन्तु प्राणी होने के नाते स्त्री-पुरुष, जीव-जन्तु और उद्भिज, सभी समान हैं; एवं सत्ता के नाते, आपका विराट् विश्व के साथ एकत्व है। भगवान् ही वह विराट् सत्ता हैं - इस वैचित्र्यमय जगत्प्रपंच का चरम एकत्व; वे ही इस वैचित्र्यमय जगत्-प्रपंच के रूप में प्रकट हुए हैं। उस ईश्वर में हम सभी लोग एक हैं, किन्तु व्यक्त प्रपंच में यह भेद अवश्य चिरकाल तक विद्यमान रहेगा। हमारे प्रत्येक बाहरी कार्य में और चेष्टा में यह सदा ही विद्यमान रहेगा। इसलिए सार्वजनीन धर्म का यदि यह अर्थ हो कि किसी विशेष मत में संसार के सभी लोग विश्वास करें, तो यह सर्वथा असम्भव है। यह कभी हो नहीं सकता। ऐसा समय कभी नहीं आयगा जब सब लोगों का मुँह एक रंग का हो जाय। और यदि हम आशा करें कि समस्त संसार एक ही पौराणिक तत्व में विश्वास करेगा, तो यह भी असम्भव है, यह कभी नहीं हो सकता। उसी प्रकार समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति प्रचलित हो नहीं सकती। ऐसा किसी समय हो नहीं सकता, अगर कभी हो भी जाय, तो सृष्टि लुप्त हो जायगी। कारण, वैचित्र्य ही जीवन की मूल भित्ति है।
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