ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
अभी तक हम लोगों ने देखा है कि धर्म के सम्बन्ध में कोई सार्वभौमिक भाव खोज निकालना जरा टेढ़ी खीर है। तथापि हम जानते हैं कि ऐसा भाव वर्तमान है। हम सभी लोग मनुष्य तो अवश्य हैं, किन्तु क्या सभी समान हैं? निश्चय ही नहीं। कौन कहता है हम सब समान हैं? केवल पागल। क्या हम बल, बुद्धि, शरीर में समान हैं? एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा बलवान, एक मनुष्य की बुद्धि दूसरे की अपेक्षा अधिक अधिक तीक्ष्ण है। यदि हम सब लोग समान ही होते, तो यह असमानता कैसी? किसने यह असमानता उपस्थित की? हम लोगों ने स्वयं ही। हम लोगों में क्षमता, विद्या, बुद्धि और शारीरिक बल का तारतम्य होने के कारण निश्चय ही पार्थक्य है। फिर भी हम लोग जानते हैं कि समता का यह सिद्धान्त हम लोगों के हृदय को स्पर्श करता है। हम सब लोग मनुष्य अवश्य हैं, किन्तु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियाँ हैं; कोई काले हैं और कोई गोरे - किन्तु सभी मनुष्य हैं, सभी एक मनुष्यजाति के अन्तर्गत हैं। हम लोगों का चेहरा भी कई प्रकार का है। दो मनुष्यों का मुँह ठीक एक तरह का नहीं देख पाते, तथापि हम सब लोग मनुष्य हैं।
मनुष्यत्वरूपी एक सामान्य तत्व कहाँ है? मैंने जिस किसी काले या गोरे स्त्री या पुरुष को देखा, उन सब के मुँह पर मनुष्यत्वरूपी एक समान अमूर्त भाव है, जो सब में वर्तमान है। जिस समय मैं उसे पकड़ने की चेष्टा करता हूँ उसे इन्द्रियगोचर करना चाहता हूँ उसे बाहर प्रत्यक्ष करना चाहता हूँ उसे उस समय देख भी नहीं सकता; किन्तु यदि किसी वस्तु के अस्तित्व के सम्बन्ध में हमें निश्चित ज्ञान है, तो वह हममें मनुष्यत्वरूपी जो साधारण भाव है, उसी का है। पहले मनुष्यत्व का साधारण ज्ञान होता है, इसके बाद ही मैं आप लोगों को स्त्री और पुरुष के रूप में जान पाता हूँ। सार्वजनीन धर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है, वह ईश्वर-रूप से पृथ्वी के सभी विभिन्न धर्मों में विद्यमान है।
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