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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


हम लोगों का आकार किसने बनाया है? - वैषम्य ने। सम्पूर्ण साम्य-भाव होने से ही हमारा विनाश अवश्यम्भावी है। समान परिणाम और सम्पूर्ण रूप से विसरण होना ही उत्ताप का धर्म है। मान लीजिये इस घर का सारा उत्ताप उस तरह विसरित हो जाय, तो ऐसा होने पर कार्यत: वहाँ उत्ताप नामक कोई चीज बाकी न रहेगी। इस संसार की गति किस कारण सम्मव होती है? समता-च्युति इसका कारण है। जिस समय इस संसार का ध्वंस होगा, उसी समय चरम साम्य आ सकेगा, अन्यथा ऐसा होना असम्भव है। केवल इतना ही नहीं, ऐसा होना विपज्जनक भी है। हम सभी लोग एक प्रकार का विचार करेंगे, ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। ऐसा होने से विचार करने की कोई चीज न रह जायगी। अजायबघर में रखी हुई मिस्र देश की ममियों* (Mummies ) की तरह हम सभी लोग एक प्रकार के हो जायेंगे और एक दूसरे को देखते रहेंगे। हमारे मन में कोई भाव ही न उठेगा। यही भिन्नता, यही वैषम्य, हममें परस्पर यही असाम्य-भाव हमारी उन्नति का प्राण - हमारे समस्त चिन्तन का स्रष्टा है। यह वैचित्र्य सदा ही रहेगा। (*मिस्र देश में मुर्दो को औषधियों के द्वारा कई हजार वर्ष तक कायम रखने का रिवाज है। इस तरह कायम रखी हुई लाश को 'ममी' कहते हैं।)

सार्वभौमिक धर्म का अर्थ फिर मैं क्या समझता हूँ? कोई सार्वभौमिक दार्शनिक तत्व, कोई सार्वभौमिक पौराणिक तत्व या कोई सार्वभौमिक अनुष्ठान-पद्धति, जिसको मानकर सब को चलना पड़ेगा - मेरा अभिप्राय नहीं है। कारण, मैं जानता हूँ कि तरह तरह के चक्र-समवायों से गठित, बड़ा ही जटिल और आश्चर्यजनक यह जो विश्वरूपी दुर्बोध और विशाल यन्त्र है, वह सदा ही चलता रहेगा। फिर हम लोग क्या कर सकते हैं? हम इस यन्त्र को अच्छी तरह चला सकते हैं, इसमें घर्षण कम कर सकते हैं - इसके चक्कों में तेल डाल सकते हैं। वह कैसे? वैषम्य की नैसर्गिक अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए। जैसे हम सबने स्वाभाविक रूप से एकत्व को स्वीकार किया है, उसी प्रकार हमको वैषम्य भी स्वीकार करना पड़ेगा। हमको यह शिक्षा लेनी होगी कि एक ही सत्य का प्रकाश लाखों प्रकार से होता है और प्रत्येक भाव ही अपनी निर्दिष्ट सीमा के अन्दर प्रकृत सत्य है - हमको यह सीखना होगा कि किसी भी विषय को सैकड़ों प्रकार की विभिन्न दृष्टि से देखने पर वह एक ही वस्तु रहती है।

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