ई-पुस्तकें >> धर्म रहस्य धर्म रहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
जिन जातियों ने उसे मूर्ति के रूप में ग्रहण किया है, वे कभी भी उसे पुरुष चिह्न नहीं समझते। वह भी दूसरी मूर्तियों की तरह एक मूर्ति है - बस इतना ही। किन्तु दूसरी जाति या सम्प्रदाय का एक मनुष्य उसे पुरुष-चिह्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझ सकता। इसीलिए वह उसकी निन्दा आरम्भ करता है। किन्तु यह भी सम्भव है कि स्वयं वह कुछ ऐसा करता है, जो लिंगोपासकों की दृष्टि में बीभत्स है। लिंगोपासना और सैक्रेमेन्ट (Sacrament) नामक ईसाई धर्म के अनुष्टान-विशेष की बात कही जा सकती है। ईसाइयों के लिए लिंगोपासना में व्यवहृत मूर्ति अति कुत्सित है और हिन्दुओं के लिए ईसाइयों का सैक्रेमेन्ट वीभत्स है। हिन्दू कहते हैं कि किसी मनुष्य की सद्गुणावली पाने के अभिप्राय से उसकी हत्या करके उसके मांस को खाना और खून को पीना पैशाचिक नृशंसता है। कोई कोई जंगली जातियाँ भी ऐसा ही करती हैं। यदि कोई आदमी बहुत साहसी होता है, तो वे लोग उसकी हत्या करके उसके हृदय को खाते हैं। कारण, वे समझते हैं उसके द्वारा उन्हें उस व्यक्ति का साहस और वीरत्व आदि गुण प्राप्त होगा।
सर जीन लूबक की तरह के भक्त ईसाई भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जंगली जातियों के इस रिवाज के आधार पर ही ईसाइयों के इस अनुष्ठान की रचना हुई है। दूसरे ईसाई अवश्य ही इस अनुष्ठान के उद्भव के सम्बन्ध में इस मत को स्वीकार नहीं करते और उसके द्वारा इस प्रकार के भाव का आभास मिलता है, यह भी उनकी समझ में नहीं आता। वह एक पवित्र वस्तु की मूर्ति है, इतना ही वे जानना चाहते हैं। इसलिए आनुष्ठानिक भाग में भी इस प्रकार कोई साधारण मूर्ति नहीं है, जिसे सब धर्म वाले स्वीकार और ग्रहण कर सकें। ऐसा होने से धर्म के सम्बन्ध में सब का सार्वभौमिकत्व कहाँ है? सार्वभौमिक धर्म किस प्रकार सम्भव है? सच है, किन्तु वह पहले से ही विद्यमान है। अब देखा जाय वह क्या है।
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