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धर्म रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559
आईएसबीएन :9781613013472

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


यहूदी समझते हैं, यदि एक सन्दूक के दो पल्लों में दो देवदूतों की मूर्तियाँ स्थापित की जायँ तो उस प्रतीक को मन्दिर के सबसे भीतरी, बहुत छिपे हुए और अत्यन्त पवित्र स्थान में स्थापित किया जा सकता है - वह जिहोवा की दृष्टि से परम पवित्र होगा; किन्तु यदि किसी सुन्दर स्त्री या पुरुष की मूर्ति हो तो वे कहते हैं, ''यह एक बीभत्स प्रतिमा मात्र है  - इसे तोड़ डालो।'' यही है हमारा पौराणिक सामंजस्य! यदि कोई खड़ा होकर कहे, ''हमारे अवतारों ने इन आश्चर्यजनक कामों को किया,' तो दूसरे लोग कहेंगे, ''यह केवल अन्धविश्वास मात्र है।'' किन्तु उसी समय वे लोग कहेंगे कि हमारे अवतारों ने उसकी अपेक्षा और भी अधिक आश्चर्यजनक व्यापार किये थे और वे उन्हें ऐतिहासिक सत्य समझने का दावा करते हैं। मैंने जहाँ तक देखा है, इस पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं है जो इन सब मनुष्यों के मस्तिष्क में रहनेवाले इतिहास और पुराण के सूक्ष्म पार्थक्य को पकड़ सके। इस प्रकार की कहानियाँ - वे चाहे किसी भी धर्म की क्यों न हों - सर्वथा पौराणिक होने पर भी कभी कभी उनमें भी कुछ ऐतिहासिक सत्य हो सकता है।

इसके बाद आनुष्ठानिक भाग आता है। सम्प्रदायविशेष की विशेष प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति होती है और उस संप्रदाय के अनुयायी उसी को धर्म-संगत समझकर विश्वास करते हैं तथा दूसरे सम्प्रदायों की अनुष्ठान- पद्धति को घोर अन्धविश्वास समझते हैं। यदि एक सम्प्रदाय किसी विशेष प्रकार की प्रतिमा की उपासना करता है, तो दूसरे सम्प्रदायवाले कह बैठते है, ''आह, यह कितना बीभत्स है!'' एक साधारण प्रतीक की ही बात लीजिये। लिंगोपासना में व्यवहृत मूर्ति निश्चय ही पुरुष-चिह्न है, किन्तु क्रमश: उसका यह पक्ष लोग भूल गये हैं और उसका इस समय ईश्वर के स्रष्टा-भाव के प्रतीक के रूप में ग्रहण होता है।

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