ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भगवान ही मनुष्य के मन और शरीर की समस्त शक्तियों के एकमात्र लक्ष्य हैं - एकायन हैं, फिर वे शक्तियाँ किसी भी रूप से क्यों न प्रकट हों। मानवहृदय का समस्त प्रेम - सारे भाव भगवान की ही ओर जायँ। वे ही हमारे एकमात्र प्रेमास्पद हैं। यह मानवहृदय भला और किसे प्यार करेगा? वे परम सुन्दर हैं, परम महान् हैं - अहा! वे साक्षात् सौन्दर्यस्वरूप हैं, महत्व-स्वरूप हैं। इस संसार में भला और कौन है, जो उनसे अधिक सुन्दर हो? उन्हें छोड़ इस दुनिया में भला और कौन पति होने के उपयुक्त है? उनके सिवा इस जगत् में भला और कौन हमारा प्रेमपात्र हो सकता है? अत: वे ही हमारे पति हों, वे ही हमारे प्रेमास्पद हों। बहुधा ऐसा होता है कि भगवत्प्रेम में छके भक्तगण जब इस भगवत्प्रेम का वर्णन करने जाते हैं, तो इसके लिए वे सब प्रकार के मानवी प्रेम की भाषा को उपयोगी मानकर ग्रहण करते हैं। पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते - और वे कभी समझेंगे भी नहीं। वे उसे केवल भौतिक दृष्टि से देखते हैं। वे इस आध्यात्मिक प्रेमोन्मत्तता को नहीं समझ पाते। और वे समझ भी कैसे सकें? '
'हे प्रियतम, तुम्हारे अधरों के केवल एक चुम्बन के लिए! जिसका तुमने एक बार चुम्बन किया है, तुम्हारे लिए उसकी पिपासा बढ़ती ही जाती है। उसके समस्त दुःख चले जाते हैं। वह तुम्हें छोड़ और सब कुछ भूल जाता है।''
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्।।
प्रियतम के उस चुम्बन के लिए - उनके अधरों के उस स्पर्श के लिए व्याकुल होओ, जो भक्त को पागल कर देता है, जो मनुष्य को देवता बना देता है। भगवान जिसको एक बार अपना अधरामृत देकर कृतार्थ कर देते हैं, उसकी सारी प्रकृति बिलकुल बदल जाती है। उसके लिए यह जगत् उड़ जाता है, सूर्य और चन्द्र का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता और यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड एक बिन्दु के समान प्रेम के उस अनन्त सिन्धु में न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। प्रेमोन्माद की यही चरम अवस्था है।
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