ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
|
8 पाठकों को प्रिय 283 पाठक हैं |
स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
पर सच्चा भगवत्प्रेमी यहाँ पर भी नहीं रुकता; उसके लिए तो पति और पत्नी की प्रेमोन्मत्तता भी यथेष्ट नहीं। अतएव ऐसे भक्त अवैध (परकीय) प्रेम का भाव ग्रहण करते हैं, क्योंकि वह अत्यन्त प्रबल होता है। पर देखो, उसकी अवैधता उनका लक्ष्य नहीं है। इस प्रेम का स्वभाव ही ऐसा है कि उसे जितनी बाधा मिलती है, वह उतना ही उग्र रूप धारण करता है। पति- पत्नी का प्रेम अबाध रहता है - उसमें किसी प्रकार की विघ्न-बाधा नहीं आती। इसीलिए भक्त कल्पना करता है, मानो कोई स्त्री परपुरुष में आसक्त है और उसके माता, पिता या स्वामी उसके इस प्रेम का विरोध करते हैं। इस प्रेम के मार्ग में जितनी ही बाधाएँ आती हैं, वह उतना ही प्रबल रूप धारण करता जाता है। श्रीकृष्ण वृन्दावन के कुंजों में किस प्रकार लीला करते थे, किस प्रकार सब लोग उन्मत्त होकर उनसे प्रेम करते थे, किस प्रकार उनकी बाँसुरी की मधुर तान सुनते ही चिर-धन्या गोपियाँ सब कुछ भूलकर, इस संसार और उसके समस्त बन्धनों को भूलकर, यहाँ के सारे कर्तव्य तथा सुख-दुःख को बिसराकर, उन्मत-सी उनसे मिलने के लिए छूट पड़ती थीं - यह सब मानवी भाषा द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता! हे मानव, तुम दैवी प्रेम की बातें तो करते हो, पर साथ ही इस संसार की असार वस्तुओं में भी मन दिये रहते हो। क्या तुम सच्चे हो - क्या तुम्हारा मन और मुख एक है? ''जहाँ राम हैं, वहाँ काम नहीं, और जहाँ काम है, वहाँ राम नहीं।'' वे दोनों कभी एक साथ नहीं रह सकते - प्रकाश और अन्धकार क्या-कभी एक साथ रहे हैं?
जहाँ काम तँह काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम।
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।। - गोस्वामी तुलसीदास
|