ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
मानवी प्रकृति में सन्तान के प्रति जो प्रबल स्नेह देखा जाता है, वह सन्तानरूपी एक छोटे से पुतले के लिए ही नहीं है। यदि तुम आँखें बन्द कर उसे केवल सन्तान पर ही न्योछावर कर दो, तो तुम्हें उसके फलस्वरूप दुःख अवश्य भोगना पड़ेगा। पर इस प्रकार के दुःख से ही तुममें यह चेतना जागृत होगी कि यदि तुम अपना प्रेम किसी मनुष्य को अर्पित करो, तो उसके फलस्वरूप कभी न कभी दुःख-कष्ट अवश्य आयेगा। अतएव हमें अपना प्रेम उन्हीं पुरुषोत्तम को देना होगा, जिनका विनाश नहीं, जिनका कभी परिवर्तन नहीं और जिनके प्रेमसमुद्र में कभी ज्वार-भाटा नहीं। प्रेम को अपने प्रकृत लक्ष्य पर पहुँचना चाहिए - उसे तो उनके निकट जाना चाहिए, जो वास्तव में प्रेम के अनन्त सागर हैं। सभी नदियाँ समुद्र में ही जाकर गिरती हैं। यहाँ तक कि पर्वत से गिरनेवाली पानी की एक बूँद भी, वह फिर कितनी भी बड़ी क्यों न हो, किसी झरने या नदी में पहुँचकर बस वहीं नहीं रुक जाती, वरन् वह भी अन्त में किसी न किसी प्रकार समुद्र में ही पहुँच जाती है।
भगवान हमारे सब प्रकार के भावों के एकमात्र लक्ष्य हैं। यदि तुम्हें क्रोध करना है, तो भगवान पर क्रोध करो। उलाहना देना है, तो अपने प्रेमास्पद को उलाहना दो - अपने सखा को उलाहना दो! भला अन्य किसे तुम बिना डर के उलाहना दे सकते हो? मर्त्य जीव तुम्हारे क्रोध को न सह सकेगा। वहाँ तो प्रतिक्रिया होगी। यदि तुम मुझ पर क्रोध करो, तो निश्चित है, मैं तुरन्त प्रतिक्रिया करूँगा, क्योंकि मैं तुम्हारे क्रोध को सह नहीं सकता। अपने प्रेमास्पद से कहो, ''प्रियतम, तुम मेरे पास क्यों नही आते? तुमने क्यों मुझे इस प्रकार अकेला छोड़ रखा है?'' उनको छोड़ भला और किसमें आनन्द है? मिट्टी के छोटे छोटे लोंदों में भला कौनसा आनन्द हो सकता है? हमें तो अनन्त आनन्द के घनीभूत सार को ही खोजना है - और भगवान ही आनन्द के वह घनीभूत सार हैं। आओ, हम अपने समस्त भावों और समस्त प्रवृत्तियों को उनकी ओर मोड़ दें। वे सब तो उन्हीं के लिए हैं। वे यदि अपना लक्ष्य चूक जायँ, तो वे फिर कुत्सित रूप धारण कर लेंगे। पर यदि वे अपने ठीक लक्ष्यस्थल ईश्वर में जाकर पहुँचे, तो उनमें से अत्यन्त नीच वृत्ति भी पूर्णरूपेण परिवर्तित हो जायगी।
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