ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इसके बाद है 'सख्य प्रेम’। इस सख्य प्रेम का साधक भगवान से कहता है, 'तुम मेरे प्रिय सखा हो।'*
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। - पाण्डवगीता।
जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने मित्र के सम्मुख अपना हृदय खोल देता है और यह जानता है कि उसका मित्र उसके अवगुणों पर कभी ध्यान न देगा, वरन् उसकी सदा सहायता ही करेगा - उन दोनों में जिस प्रकार समानता का एक भाव रहता है, उसी प्रकार सख्य प्रेम के साधक और उसके सखा भगवान के बीच भी मानो एक प्रकार की समानता का भाव रहता है। इस तरह भगवान हमारे अन्तरंग मित्र हो जाते हैं, जिनको हम- अपने जीवन की सारी बातें दिल खोलकर बता सकते हैं, जिनके समक्ष हम अपने हृदय के गुप्त से गुप्त भावों को भी बिना किसी हिचकिचाहट के प्रकट कर सकते हैं। उन पर हम पूरा भरोसा - पूरा विश्वास रख सकते हैं कि वे वही करेंगे, जिससे हमारा मंगल होगा; और ऐसा सोचकर हम पूर्ण रूप से निश्चिन्त रह सकते हैं। इस अवस्था में भक्त भगवान को अपनी बराबरी का समझता है - भगवान मानो हमारे संगी हों, सखा हों। हम सभी इस संसार में मानो खेल रहे हैं।
जिस प्रकार बच्चे अपना खेल खेलते हैं, जिस प्रकार बड़े बड़े राजा-महाराजा भी अपना अपना खेल खेलते हैं, उसी प्रकार वे प्रेम-स्वरूप भगवान भी इस दुनिया के साथ खेल खेल रहे हैं। वे पूर्ण हैं - उन्हें किसी चीज का अभाव नहीं। उन्हें सृष्टि करने की क्या आवश्यकता है? जब हमें किसी चीज की आवश्यकता होती है, तभी हम उसकी पूर्ति के लिए क्रियाशील होते हैं, और अभाव का तात्पर्य ही है अपूर्णता। भगवान पूर्ण हैं - उन्हें किसी बात का अभाव नहीं। तो फिर वे इस नित्य कर्ममय सृष्टि में क्यों लगे हैं? उनका उद्देश्य क्या है? भगवान के सृष्टि-निर्माण के सम्बन्ध में जो भिन्न भिन्न कल्पनाएँ हैं, वे किम्बदन्तियों के रूप में ही भली हो सकती हैं, अन्य किसी प्रकार नहीं। सचमुच, यह समस्त उनकी लीला है। यह सारा विश्व उनका ही खेल है - वह तो उनके लिए एक तमाशा है। यदि तुम निर्धन हो, तो उस निर्धनता को ही एक बड़ा तमाशा समझो; यदि धनी हो, तो उस धनीपन को ही एक तमाशे के रूप में देखो। यदि दुःख आये, तो सोचो, वही एक सुन्दर तमाशा है, और यदि सुख प्राप्त हो, तो सोचो, यह भी एक सुन्दर तमाशा है। यह दुनिया बस एक खेल का मैदान है, और हम सब यहाँ पर नाना प्रकार के खेल- खिलवाड़ कर रहे हैं - मौज कर रहे हैं। भगवान सारे समय हमारे साथ खेल रहे हैं और हम भी उनके साथ खेलते रहते हैं। भगवान तो हमारे चिरकाल के संगी हैं - हमारे खेल के साथी हैं। कैसा सुन्दर खेल रहे हैं वे! खेल खत्म हुआ कि कल्प का अन्त हो गया। फिर अल्प या अधिक समय तक विश्राम - उसके बाद फिर से खेल का आरम्भ - पुन: जगत् की सृष्टि!
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