ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
जब तुम भूल जाते हो कि यह सब एक खेल है और तुम इस खेल में सहायता कर रहे हो, तभी दुःख और कष्ट तुम्हारे पास आते हैं; तब हृदय भारी हो जाता है और संसार अपने प्रचण्ड बोझ से तुम्हें दबा देता है। पर ज्यों ही तुम इस दो पल के जीवन की परिवर्तनशील घटनाओं को सत्य समझना छोड़ देते हो और इस संसार को एक क्रीड़ाभूमि तथा अपने आपको भगवान की क्रीड़ा में एक सखा-संगी सोचने लगते हो, त्यों ही दुःख-कष्ट चला जाता है। वे तो प्रत्येक अणु-परमाणु में खेल रहे हैं। वे तो खेलते खेलते ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि का निर्माण कर रहे हैं। वे तो मानवहृदय, प्राणियों और पेड़-पौधौं के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। हम मानो उनके शतरंज के मोहरे हैं। वे मोहरों को शतरंज के खानों में बिठाकर इधर-उधर चला रहे हैं। वे हमें कभी एक प्रकार से सजाते हैं और कभी दूसरे प्रकार से - हम भी जाने या अनजाने उनके खेल में सहायता कर रहे हैं। अहा, कैसा आनन्द है! हम सब उनके खेल के साथी जो हैं!
इसके बाद है 'वात्सल्य' प्रेम। उसमें भगवान का चिन्तन पिता-रूप से न करके, सन्तान-रूप से करना पड़ता है। हो सकता है, यह कुछ अजीब-सा मालूम हो, पर उसका उद्देश्य है - अपनी भगवान सम्बन्धी धारणा में से ऐश्वर्य के समस्त भाव दूर कर देना। ऐश्वर्य की भावना के साथ ही भय आता है। पर प्रेम में भय का कोई स्थान नहीं। यह सत्य है कि चरित्रगठन के लिए भक्ति और आज्ञापालन आवश्यक हैं, पर जब एक बार चरित्र गठित हो जाता है - जब प्रेमी शान्त-प्रेम का आस्वादन कर लेता है और जब प्रेम की प्रबल उन्मत्तता का भी उसे थोड़ा सा अनुभव हो जाता है, तब उसके लिए नीतिशास्त्र और साधन नियम आदि की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रेमी कहता है कि भगवान को महामहिम, ऐश्वर्यशाली, जगन्नाथ या देवदेव के रूप में सोचने की मेरी इच्छा ही नहीं होती। भगवान के साथ सम्बन्धित यह जो भयोत्पादक ऐश्वर्य की भावना है, उसी को दूर करने के लिए वह भगवान को अपनी सन्तान के रूप में प्यार करता है।
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