ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
दैवी प्रेम की मानवी विवेचना
प्रेम के इस परमोच्च और पूर्ण आदर्श को मानवी भाषा में प्रकट करना असम्भव है। उच्चतम मानवी 'कल्पना भी उसकी अनन्त पूर्णता तथा सौन्दर्य का अनुभव करने में असमर्थ है। परन्तु फिर भी सब समय, सारे देशों में, प्रेम-धर्म के उच्च और निम्न उभय श्रेणी के उपासकों को अपने अपने प्रेमादर्श का अनुभव और वर्णन करने के लिए इस अपूर्ण मानवी भाषा का ही प्रयोग करना पड़ा है। इतना ही नहीं, बल्कि भिन्न भिन्न प्रकार के मानवी प्रेम इस अव्यक्त दैवी प्रेम के प्रतीक-स्वरूप गृहीत हुए हैं। मनुष्य दैवी विषयों के सम्बन्ध में अपने मानवी ढंग से ही सोच सकता है, वह पूर्ण निरपेक्ष सत्ता हमारे समक्ष हमारी सापेक्ष भाषा में ही प्रकाशित हो सकती है। यह सारा विश्व हमारे लिए और है क्या? वह तो मानो 'सान्त' भाषा में लिखा हुआ 'अनन्त' मात्र है। इसीलिए भक्तगण भगवान और उनकी प्रेमोपासना के सम्बन्ध में उन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो साधारण मानवी प्रेम के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। पराभक्ति के कई व्याख्याताओं ने इस दैवी प्रेम को अनेक प्रकार से समझने और उसका प्रत्यक्ष अनुभव करने की चेष्टा की है। इस प्रेम के निम्नतम रूप को 'शान्त भक्ति’ कहते हैं। जब भगवान की उपासना के समय मनुष्य के हृदय में प्रेमाग्नि प्रज्वलित नहीं रहती, जब वह प्रेम से उन्मत्त होकर अपनी सुधबुध नहीं खो बैठता, जब उसका प्रेम बाह्य क्रियाकलापों और अनुष्ठानों से कुछ थोड़ासा उन्नत एक साधारण-सा प्रेम रहता है, जब उसकी उपासना में प्रबल प्रेम की उन्मत्तता नहीं रहती, तब वह उपासना शान्त भक्ति या शान्त प्रेम कहलाती है। हम देखते हैं कि संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो साधन-पथ पर धीरे धीरे अग्रसर होना पसन्द करते हैं; और कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो आँधी के समान जोर से चले जाते हैं। शान्त भक्त धीर होता है, शान्त और नम्र होता है।
इससे कुछ ऊँची अवस्था है - 'दास्य'। इस अवस्था में मनुष्य अपने को ईश्वर का दास समझता है। विश्वासी सेवक की अपने स्वामी के प्रति अनन्य भक्ति ही उसका आदर्श है।
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