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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


भगवान प्रेमरूप होने के कारण स्वतसिद्ध हैं, वे अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखते। प्रेमी के पास प्रेमास्पद का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए किसी बात की आवश्यकता नहीं। अन्यान्य धर्मों के न्यायकर्ता-भगवान का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए बहुत से प्रमाणों की आवश्यकता हो सकती है, पर भक्त तो ऐसे भगवान की बात मन में भी नहीं ला सकता। उसके लिए तो भगवान केवल प्रेमस्वरूप हैं। ''हे प्रिये, कोई भी स्त्री पति से पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन् पति में स्थित आत्मा के लिए ही प्रेम करती है। हे प्रिये, कोई भी पुरुष पत्नी से पत्नी के लिए प्रेम नहीं करता, वरन् पत्नी में स्थित आत्मा के लिए ही प्रेम करता है।'' कोई कोई कहते हैं कि समस्त मानवी कार्यों की एकमात्र प्रेरक-शक्ति है स्वार्थपरता। किन्तु वह भी तो प्रेम ही है; पर हाँ, वह प्रेम विशिष्टता के कारण निम्नभावापन्न हो गया है - बस इतना ही।

जब मैं अपने को संसार की सारी वस्तुओं में अवस्थित सोचता हूँ तब निश्चय ही मुझमें किसी प्रकार की स्वार्थपरता नहीं रह सकती। किन्तु जब मैं भ्रम में पड़कर अपने आपको एक छोटासा प्राणी सोचने लगता हूँ तब मेरा प्रेम संकीर्ण हो जाता है - एक विशिष्ट भाव से सीमित हो जाता है। प्रेम के क्षेत्र को संकीर्ण और मर्यादित कर लेना ही हमारा भ्रम है। इस विश्व की सारी वस्तुएँ भगवान से निकली हैं, अतएव वे सभी हमारे प्रेम के योग्य हैं। पर हम यह सर्वदा स्मरण रखें कि समष्टि को प्यार करने से ही अंशों को, भी प्यार करना हो जाता है। यह समष्टि ही भक्त का भगवान है। अन्यान्य प्रकार के ईश्वर - जैसे, स्वर्ग में रहनेवाले पिता, शास्ता, स्रष्टा - तथा नानाविध मतवाद और शास्त्र-ग्रन्थ भक्त के लिए कुछ अर्थ नहीं रखते - उसके लिए इन सब का कोई प्रयोजन नहीं; क्योंकि वह तो पराभक्ति के प्रभाव से सम्पूर्णत: इन सब के ऊपर उठ गया है।

जब हृदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है, तथा दैवी प्रेमामृत से सराबोर हो जाता है, तब ईश्वरसम्बन्धी अन्य सब धारणाएँ बच्चों की बात-सी प्रतीत होने लगती हैं और वे अपूर्ण एवं अनुपयुक्त समझकर त्याग दी जाती हैं। सचमुच, पराभक्ति का प्रभाव ही ऐसा है! तब वह पूर्णताप्राप्त भक्त अपने भगवान को मन्दिरों और गिरजों में खोजने नहीं जाता; उसके लिए तो ऐसा कोई स्थान ही नहीं, जहाँ वे न हों। वह उन्हें मन्दिर के भीतर और बाहर सर्वत्र देखता है। साधु की साधुता में और दुष्ट की दुष्टता में भी वह उनके दर्शन करता है; क्योंकि उसने तो उन महिमामय प्रभु को पहले से ही अपने हृदय-सिंहासन में बिठा लिया है और वह जानता है कि वे एक सर्वशक्तिमान एवं अनिर्वाण प्रेमज्योति के रूप में उसके हृदय में नित्य दीप्तिमान हैं और सदा से वर्तमान हैं।

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