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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


हम अपने इस पांचभौतिक शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक के लिए भले ही सुखपूर्वक रख लें, पर उससे क्या? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। वे धन्य हैं, जिनका शरीर दूसरों की सेवा में अर्पण हो जाता है। ''एक साधु पुरुष केवल अपनी सम्पत्ति ही नहीं, वरन् अपने प्राण भी दूसरों की सेवा में उत्सर्ग कर देने के लिए सदैव उद्यत रहता है। इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर किसी नीच कार्य की अपेक्षा किसी उत्तम कार्य में ही अर्पित हो जाय।'' हम भले ही अपने जीवन को पचास वर्ष, या बहुत हुआ तो सौ वर्ष तक खींच ले जायँ, पर उसके बाद? उसके बाद क्या होता है? जो कोई वस्तु मिश्रण से उत्पन्न होती है, वही फिर विश्लिष्ट होकर नष्ट हो जाती है। ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विश्लिष्ट होना ही पड़ता है। ईसा आज कहाँ रहे, बुद्ध और मुहम्मद आज कहाँ रहे? संसार के सारे महापुरुष और आचार्यगण आज इस धरती से उठ गये हैं।

भक्त कहता है, ''इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है, हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए।'' और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग तो यह है कि वह सर्व भूतों की सेवा में लगा दिया जाय। हमारा सब से बड़ा भ्रम यह है कि हमारा यह शरीर ही हम हैं और जिस किसी प्रकार से हो, इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। और यह भयानक देहात्म-बुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता की जड़ है। यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको कि तुम शरीर से बिलकुल पृथक् हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायगा, जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता के अतीत हो जाओगे।

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