ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इस प्रगाढ़, सर्वगाही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे प्रेमी जीव के सामने यदि दुःख भी आये, तो वह कहेगा, ''दुःख! स्वागत है तुम्हारा।'' यदि कष्ट आये, तो कहेगा, ''आओ कष्ट! स्वागत है तुम्हारा।'' तुम भी तो मेरे प्रियतम के पास से ही आये हो।'' यदि सर्प आये, तो कहेगा, ''विराजो, सर्प!'' यहाँ तक कि यदि मृत्यु भी आये, तो वह अधरों पर मुसकान लिये उसका स्वागत करेगा। ''धन्य हूँ मैं, जो ये सब मेरे पास आते हैं; इन सब का स्वागत है।'' भगवान और जो कुछ भगवान का है, उस सब के प्रति प्रगाढ़ प्रेम से उत्पन्न होनेवाली इस पूर्ण निर्भरता की अवस्था में भक्त अपने में होनेवाले सुख और दुःख का भेद भूल जाता है। दुःख-कष्ट आने पर वह तनिक भी विचलित नहीं होता। और प्रेमस्वरूप भगवान की इच्छा पर यह जो स्थिर, खेदशून्य निर्भरता है, वह तो सचमुच महान् वीरतापूर्ण क्रियाकलापों से मिलनेवाले नाम-यश की अपेक्षा कहीं अधिक वांछनीय है।
अधिकतर मनुष्यों के लिए देह ही सब कुछ है; देह ही उनकी सारी दुनिया है; दैहिक सुख-भोग ही उनका सर्वस्व है। देह और देह से सम्बन्धित वस्तुओं की उपासना करने का भूत हम सबों के सिर में घुस गया है। भले ही हम लम्बी-चौड़ी बातें करें, बड़ी ऊँची ऊँची ऊड़ाने लें, पर आखिर हैं हम गिद्धों के ही समान; हमारा मन सदा नीचे पड़े हुए सड़े-गले मांस के दुकड़े में ही पड़ा रहता है। हम शेर से अपने शरीर की रक्षा क्यों करें? हम उसे शेर को क्यों न दे दें? कम से कम उससे शेर की तो तृप्ति होगी, और यह कार्य आत्मत्याग और उपासना से कोई अधिक दूर न होगा। क्या तुम ऐसे एक भाव की उपलब्धि कर सकते हो, जिसमें स्वार्थ की तनिक भी गन्ध न हो? क्या तुम अपना अहं-भाव सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर सकते हो? बस यही प्रेम-धर्म की सब से ऊँची चोटी है, और बहुत थोड़े लोग ही इस अवस्था में पहुँच सके हैं। पर जब तक मनुष्य इस प्रकार के आत्मत्याग के लिए सारे समय पूरे हृदय के साथ प्रस्तुत नहीं रहता, तब तक वह पूर्ण भक्त नहीं हो सकता।
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