ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इसीलिए भक्त कहता है कि हमें ऐसा रहना चाहिए, मानो हम दुनिया की सारी चीजों के लिए मर-से गये हों। और वास्तव में यही यथार्थ आत्मसमर्पण है - यही सच्ची शरणागति है - 'जो होने का है, हो'। यही ''तेरी इच्छा पूर्ण हो'' का तात्पर्य है। उसका तात्पर्य यह नहीं कि हम यत्र-तत्र लड़ाई-झगड़ा करते फिरें और सारे समय यही सोचते रहें कि हमारी ये सारी कमजोरियाँ और सांसारिक आकांक्षाएँ भगवान की इच्छा से हो रही हैं। हो सकता है कि हमारे स्वार्थपूर्ण प्रयत्नों से भी कुछ भला हो जाय; पर वह भगवान देखेंगे, उसमें हमारा-तुम्हारा कोई हाथ नहीं। यथार्थ भक्त अपने लिए कभी कोई इच्छा या कार्य नहीं करता। उसके हृदय के अन्तरतम प्रदेश से तो बस यही प्रार्थना निकलती है, ''प्रभो, लोग तुम्हारे नाम पर बड़े बड़े मन्दिर बनवाते हैं, बड़े बड़े दान देते हैं; पर मैं तो निर्धन हूँ मेरे पास कुछ भी नहीं है। अत: मैं अपने इस शरीर को ही तुम्हारे श्रीचरणकमलों में समर्पित करता हूँ। मेरा परित्याग न करना, मेरे प्रभो!'' जिसने एक बार इस अवस्था का आस्वादन कर लिया है, उसके लिए प्रेमास्पद भगवान के श्रीचरणों में यह चिर आत्मसमर्पण कुबेर के धन और इन्द्र के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है, नाम-यश और सुख-सम्पदा की महान् आकांक्षा से भी महत्तर है।
भक्त के शान्त आत्मसमर्पण से हृदय में जो शान्ति आती है, उसकी तुलना नहीं हो सकती, वह तो बुद्धि के अगोचर है। इस अप्रातिकूल्य अवस्था की प्राप्ति होने पर उसका किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं रह जाता; और जब स्वार्थ ही नहीं, तब फिर स्वार्थ में बाधा देनेवाली भला कौन सी वस्तु संसार में रह जाती है? इस परम शरणागति की अवस्था में सब प्रकार की आसक्ति समूल नष्ट हो जाती है और रह जाती है सर्व भूतों की अन्तरात्मा और आधार- स्वरूप उन भगवान के प्रति सर्वावगाहिनी प्रेमात्मिका आसक्ति। भगवान के प्रति प्रेम का यह बन्धन ही सचमुच ऐसा है, जो जीवात्मा को नहीं बाँधता, प्रत्युत उसके समस्त बन्धन छिन्न कर देता है।
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