ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
जो लोग केवल उन्हीं की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते हैं, और जो अन्य लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं, वे उसको शत्रु के समान लगते हैं। प्रेम की इससे भी उच्च अवस्था तो वह है, जब उन प्रेमास्पद भगवान के लिए ही जीवन धारण किया जाता है, जब उन प्रेमस्वरूप के निमित्त ही प्राण धारण करना सुन्दर और सार्थक समझा जाता है। ऐसे प्रेमी के लिए उन परम प्रेमास्पद भगवान बिना एक क्षण भी रहना असम्भव हो उठता है। उन प्रियतम का चिन्तन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। शास्त्रों में इसी अवस्था को 'तदर्थप्राणसंस्थान' कहा है। 'तदीयता तब आती है, जब साधक भक्ति-मत के अनुसार पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब वह श्रीभगवान के चरणारविन्दों का स्पर्श कर धन्य और कृतार्थ हो जाता है। तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है - सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। तब उसके जीवन की सारी साध पूरी हो जाती है। फिर भी, इस प्रकार के बहुत से भक्त बस उनकी उपासना के निमित्त ही जीवन धारण किये रहते हैं। इस दुःखमय जीवन में यही एकमात्र सुख है, और वे इसे छोड़ना नहीं चाहते। ''हे राजन्! हरि के ऐसे मनोहर गुण हैं कि जो लोग उनको प्राप्त कर संसार की सारी वस्तुओं से तृप्त हो गये हैं, जिनके हृदय की सब ग्रन्थियाँ खुल गयी हैं वे भी भगवान की निष्काम-भक्ति करते हैं''।
''जिन भगवान की उपासना सारे देवता, मुमुक्षु और ब्रह्मवादीगण करते हैं।''
यं सर्वे देवा नमस्यन्ति मुमुक्षवो तह्मवादिनष्च। - नृसिंह उपनिषद् 5/2/15
ऐसा है प्रेम का प्रभाव! जब मनुष्य अपने आपको बिलकुल भूल जाता है और जब उसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि कोई चीज अपनी है, तभी उसे यह 'तदीयता' की अवस्था प्राप्त होती है। तब सब कुछ उसके लिए पवित्र हो जाता है, क्योंकि वह सब उसके प्रेमास्पद का ही तो है। सांसारिक प्रेम में भी, प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रत्येक वस्तु को बड़ी प्रिय और पवित्र मानता है। अपनी प्रणयिनी के कपड़े के एक छोटे से टुकड़े को भी वह प्यार करता है। इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान से प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार प्रिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उन्हीं का तो है।
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