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भक्तियोग
भक्तियोग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ :
Ebook
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पुस्तक क्रमांक : 9558
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आईएसबीएन :9781613013427 |
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भक्ति के अवस्था-भेद
भक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती है।
सम्मान-बहुमान-प्रीति-विरह-इतरविचिकित्सा-महिमख्याति-तदर्थप्राण -संस्थान-तदीयता-सर्वतद्भाव-अप्रातिकूल्यादीनि च स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्। - शांडिल्यसूत्र, 2/1/44
पहला है - 'श्रद्धा'। लोग मन्दिरों और पवित्र स्थानों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि वहाँ भगवान की पूजा होती है, ऐसे स्थानों में उनकी सत्ता अधिक अनुभूत होती है। प्रत्येक देश में लोग धर्म के आचार्यों के प्रति श्रद्धा क्यों प्रकट करते हैं? इसलिए कि ऐसा करना नितान्त स्वाभाविक है, क्योंकि ये सब आचार्य उन्हीं भगवान की महिमा का उपदेश देते हैं। इस श्रद्धा का मूल है प्रेम। हम जिससे प्रेम नहीं करते, उसके प्रति कभी भी श्रद्धालु नहीं हो सकते।
इसके बाद है - 'प्रीति' अर्थात् ईश्वर-चिन्तन में आनन्द। मनुष्य इन्द्रिय- विषयों में कितना तीव्र आनन्द अनुभव करता है। इन्द्रियों को अच्छी लगनेवाली चीजों के लिए वह कहाँ कहाँ भटकता फिरता है और बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने को तैयार रहता है।
भक्त को चाहिए कि वह भगवान के प्रति इसी प्रकार का तीव्र प्रेम रखे।
इसके उपरान्त आता है 'विरह' - प्रेमास्पद के अभाव में उत्पन्न होनेवाला तीव्र दुःख। यह दुःख संसार के समस्त दुःखों में सब से मधुर है - अत्यन्त मधुर है। जब मनुष्य भगवान को न पा सकने के कारण, संसार में एकमात्र जानने योग्य वस्तु को न जान सकने के कारण भीतर में तीव्र वेदना अनुभव करने लगता है और फलस्वरूप अत्यन्त व्याकुल हो बिलकुल पागल-सा हो जाता है, तो उस दशा को विरह कहते हैं। मन की ऐसी दशा में प्रेमास्पद को छोड़ उसे और कुछ अच्छा नहीं लगता (इतरविचिकित्सा)। बहुधा यह विरह सांसारिक प्रणय में देखा जाता है। जब स्त्री और पुरुष में यथार्थ और प्रगाढ़ प्रेम होता है, तो उन्हें ऐसे किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति अच्छी नहीं लगती, जो उनके मन का नहीं होता। ठीक इसी प्रकार जब पराभक्ति हृदय पर अपना प्रभाव जमा लेती है, तो अन्य अप्रिय विषयों की उपस्थिति हमें खटकने लगती है, यहाँ तक कि प्रेमास्पद भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बातचीत तक करना हमारे लिए अरुचिकर हो जाता है, ''उन पर - केवल उन पर ध्यान करो और अन्य सब बातें त्याग दो।''
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