ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भक्त उतनी ऊँची उड़ान नहीं उड़ता, जितना कि एक ज्ञानयोगी, और इसीलिए उसके बड़े खड्डों में गिरने की आशंका भी नहीं रहती। पर हाँ, इतना समझ लेना होगा कि साधक किसी भी पथ पर क्यों न चले, जब तक आत्मा के सारे बन्धन छूट नहीं जाते, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता।
निम्नोक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार एक भाग्यशालिनी गोपी पाप और पुण्य के बन्धनों से मुक्त हो गयी थी। ''भगवान के ध्यान से उत्पन्न तीव्र आनन्द ने उसके समस्त पुण्यकर्मजनित बन्धनों को काट दिया। फिर भगवान की प्राप्ति न होने की परम आकुलता से उसके समस्त पाप धुल गये और वह मुक्त हो गयी।''
तच्चिन्ताविपुलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा।
तदप्राप्तिमद्दु:खविलीनाशेषपातका।।
चिन्तयन्ती जगन्सूतिं परब्रह्मस्वस्वरूपिणम्।
निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गतान्या गोपकन्यका।। विष्णुपुराण, 5/13/21-22
अतएव भक्तियोग का रहस्य यह है कि मनुष्य के हृदय में जितने प्रकार की वासनाएँ और भाव हैं, उनमें से कोई भी स्वरूपत: खराब नहीं है; उन्हें धीरे धीरे अपने वश में लाकर उनकी गति क्रमश: उच्च से उच्चतर दिशा में फेरनी होगी। और यह; कब तक करना होगा? जब तक कि वे परमोच्च दशा को प्राप्त न हो जांय। उनकी सर्वोच्च गति है भगवान, और उनकी शेष सब गतियाँ निम्नाभिमुखी हैं। हम देखते हैं कि हमारे जीवन में सुख और दुःख सर्वदा लगे ही रहते हैं। जब कोई मनुष्य धन अथवा अन्य किसी सांसारिक वस्तु के अभाव से दुःख अनुभव करता है, तो वह अपनी भावनाओं को गलत मार्ग पर ले जा रहा है। फिर भी, दुःख की भी उपयोगिता है। यदि मनुष्य इस बात के लिए दुःख करने लगे कि अब तक उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई, तो वह दुःख उसकी मुक्ति का हेतु बन जायगा। जब कभी तुम्हें इस बात का आनन्द होता है कि तुम्हारे पास चाँदी के कुछ टुकड़े हैं, तो समझना कि तुम्हारी आनन्द-वृत्ति गलत रास्ते पर जा रही है। उसे उच्चतर दिशा की ओर ले जाना होगा, हमें अपने सर्वोच्च लक्ष्य भगवान के चिन्तन में आनन्द अनुभव करना होगा। हमारी अन्य सब भावनाओं के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसी ही बात है। भक्त की दृष्टि में उनमें से कोई भी खराब नहीं है; वह उन सब को लेकर केवल भगवान की ओर फेर देता है।
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