ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भक्तियोग की स्वाभाविकता और उसका रहस्य
भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन पूछते हैं, ''हे प्रभो, जो सतत युक्त हो तुम्हें भजता है, और जो अव्यक्त, निर्गुण का उपासक है, इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है?''
श्रीभगवान कहते हैं, ''हे अर्जुन, मुझमें मन को एकाग्र करके जो नित्ययुक्त हो परम श्रद्धा के साथ मेरी उपासना करता है, वही मेरा श्रेष्ठ उपासक है, वही श्रेष्ठ योगी है। और जो इन्द्रिय-समुदाय को पूर्ण वश में करके, मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अव्यक्त और सदा एकरस रहनेवाले नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म की, निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासना करते हैं, वे समस्त भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव रखनेवाले योगी भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। किन्तु उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के लिए (साधन में) क्लेश अर्थात् परिश्रम अधिक है, क्योंकि देहाभिमानी व्यक्तियों द्वारा यह अव्यक्त गति बहुत दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है अर्थात् जब तक शरीर में अभिमान रहता है, तब तक शुद्ध सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में स्थिति होना कठिन है। और जो मेरे परायण हुए भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण कर, मुझे अनन्य ध्यान और योग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, हे अर्जुन, मुझमें चित्त लगानेवाले उन प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूपी संसार-समुद्र से उद्धार करनेवाला होता हूँ।''
उपर्युक्त कथन में ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों का दिग्दर्शन कराया गया है। कह सकते हैं कि उसमें दोनों की व्याख्या कर दी गयी है। ज्ञानयोग अवश्य अति श्रेष्ठ मार्ग है। तत्वविचार उसका प्राण है। और आश्चर्य की बात तो यह है कि सभी सोचते हैं कि वे ज्ञानयोग के आदर्शानुसार चलने में समर्थ हैं। परन्तु वास्तव में ज्ञानयोग-साधना बड़ी कठिन है। उसमें गिर जाने की बड़ी आशंका रहती है।
संसार में हम दो प्रकार के मनुष्य देखते हैं। एक तो आसुरी प्रकृतिवाले, जिनकी दृष्टि में शरीर का पालन-पोषण ही सर्वस्व है, और दूसरे दैवी प्रकृतिवाले, जिनकी यह धारणा रहती है कि शरीर किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति का - आत्मोन्नति का एक साधन मात्र है। शैतान भी अपनी कार्यसिद्धि के लिए शास्त्रों को उद्धृत कर सकता है और करता भी है। और इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानमार्ग जिस प्रकार साधु व्यक्तियों के सत्कार्य का प्रबल प्रेरक है, उसी प्रकार असाधु व्यक्तियों के भी कार्य का समर्थक है। ज्ञानयोग में यही एक बड़े खतरे की बात है। परन्तु भक्तियोग बिलकुल स्वाभाविक और मधुर है।
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