ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
सार्वजनीन प्रेम
समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से प्रेम कैसे कर सकते हैं? ईश्वर ही वह समष्टि है। सारे विश्व का यदि एक अखण्ड रूप से चिन्तन किया जाय, तो वही ईश्वर है, और उसे पृथक्-पृथक् रूप से देखने पर वही यह दृश्यमान संसार है - व्यष्टि है। समष्टि वह इकाई है, जिसमें लाखों छोटी छोटी इकाइयों का मेल है। इस समष्टि के माध्यम से ही सारे विश्व को प्रेम करना सम्भव है। भारतीय दार्शनिक व्यष्टि पर ही नहीं रुक जाते; वे तो व्यष्टि पर एक सरसरी दृष्टि डालकर तुरन्त एक ऐसे व्यापक या समष्टि भाव की खोज में लग जाते हैं, जिसमें सब व्यष्टियों या विशेष विशेष भावों का अन्तर्भाव हो। इस समष्टि की खोज ही भारतीय दर्शन और धर्म का लक्ष्य है। ज्ञानी पुरुष ऐसी एक समष्टि की, ऐसे एक निरपेक्ष और व्यापक तत्व की कामना करता है, जिसे जानने से वह सब कुछ जान सके।
भक्त उन एक सर्वव्यापी पुरुषोत्तम की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिनसे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। योगी सब की मूलभूत उस शक्ति को अपने अधिकार में लाना चाहता हैं, जिसके नियमन से वह इस सम्पूर्ण विश्व का नियमन कर सके। यदि हम भारतीय विचारधारा के इतिहास का अध्ययन करें, तो देखेंगे कि भारतीय मन सदा से सब बातों में - भौतिक विज्ञान कहिये, मनोविज्ञान कहिये, भक्तितत्व, दर्शन आदि सभी में एक समष्टि या व्यापक तत्व की इस अपूर्व खोज में लगा रहा है। अतएव भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के बाद दूसरे व्यक्ति से प्रेम करते चले जाओ, तो तुम अनन्त काल में भी संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम की समष्टि ही भगवान है, संसार के मुक्त, बद्ध या मुफ्त सारे जीवात्माओं की आदर्श-समष्टि ही ईश्वर हैं, तभी यह विश्वप्रेम सम्भव होता है। भगवान ही समष्टि हैं और यह परिदृश्यमान जगत् उन्हीं का परिच्छिन्न भाव है - उन्हीं की अभिव्यक्ति है।
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