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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558
आईएसबीएन :9781613013427

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


जिसके हृदय में कभी भी किसी के प्रति अनिष्ट विचार तक नहीं आता, जो अपने बड़े से बड़े शत्रु की भी उन्नति पर आनन्द मानता है, वही वास्तव में भक्त है, वही योगी है और वही सब का गुरु है - फिर भले ही वह प्रतिदिन शूकर-मांस ही क्यों न खाता हो! अतएव हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि बाह्य क्रियाएँ आन्तरिक शुद्धि के लिए सहायक मात्र हैं। जब बाह्य कर्मों के साधन में छोटी छोटी बातों का पालन करना सम्भव न हो, तो उस समय केवल अन्तःशौच का अवलम्बन करना श्रेयस्कर है। पर धिक्कार है उस व्यक्ति को, धिक्कार है उस राष्ट्र को, जो धर्म के सार को तो भूल जाता है और अभ्यासवश बाह्य अनुष्ठानों को ही कसकर पकड़े रहता है तथा उन्हें किसी तरह छोड़ता नहीं! इन बाह्य अनुष्ठानों की उपयोगिता बस वहीं तक है जब तक वे आध्यात्मिक जीवन के द्योतक हैं। और जब वे प्राणशून्य हो जाते हैं, जब वे आध्यात्मिक जीवन के द्योतक नहीं रह जाते, तो बिना किसी हिचकिचाहट के उनको नष्ट कर देना चाहिए।

भक्तियोग की प्राप्ति का एक और साधन है 'अनवसाद' अर्थात् बल। श्रुति कहती है, ''बलहीन व्यक्ति आत्मलाभ नहीं कर सकता।''
नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:। - मुण्डकोपनिषद् 3/2/4

इस दुर्बलता का तात्पर्य है - शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की दुर्बलताएँ। ''बलिष्ठ, द्रढिष्ठ'' व्यक्ति ही ठीक ठीक साधक होने योग्य है। दुर्बल, कृश-शरीर तथा जराजीर्ण व्यक्ति क्या साधन करेगा? शरीर और मन में जो अद्भुत शक्तियाँ निहित हैं, किसी योगाभ्यास के द्वारा यदि वे थोड़ी सी भी जाग्रत् हो गयीं, तो दुर्बल व्यक्ति तो बिलकुल नष्ट हो जायगा। ''युवा, स्वस्थकाय, सबल'' व्यक्ति ही सिद्ध हो सकता है। अतएव शारीरिक बल नितान्त आवश्यक है। स्वस्थ शरीर ही इन्द्रिय-संयम की प्रतिक्रिया को सह सकता है। अत: जो भक्त होने का इच्छुक है, उसे सबल और स्वस्थ होना चाहिए। अत्यन्त दुर्बल व्यक्ति यदि कोई योगाभ्यास आरम्भ कर दे, तो सम्भव है, वह किसी असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो जाय, अथवा अपना मानसिक बल ही खो बैठे। जान-बूझकर शरीर को दुर्बल कर लेना आध्यात्मिक अनुभूति के लिए कोई अनुकूल व्यबस्था नहीं है।

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