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भक्तियोग
भक्तियोग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ :
Ebook
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पुस्तक क्रमांक : 9558
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आईएसबीएन :9781613013427 |
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
दुर्बलचित्त व्यक्ति भी आत्मलाभ नहीं कर सकता। जो मनुष्य भक्त होने का इच्छुक है, उसे सदैव प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। पाष्चात्य देशों में धार्मिक व्यक्ति वह माना जाता है, जो कभी मुसकराता नहीं, जिसके मुख पर सर्वदा विषाद की रेखा बनी रहती है और जिसकी सूरत लम्बी और जबड़े बैठे- से होते हैं। ऐसे कृश-शरीर और लम्बी सूरतवाले लोग तो किसी हकीम की देख-भाल की चीजें हैं, वे योगी नहीं हैं। प्रसन्नचित्त व्यक्ति ही अध्यवसायशील हो सकता है। दृढ़ संकल्पवाला व्यक्ति हजारों कठिनाइयों में से भी अपना रास्ता निकाल लेता है। इस मायाजाल को काटकर अपना रास्ता बना लेना सब से कठिन कार्य है और यह केवल प्रबल इच्छाशक्तिसम्पन्न पुरुष ही कर सकते हैं।
परन्तु साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य कहीं अत्यधिक आमोद में मत्त न हो जाय। यही 'अनुद्धर्ष' है। अत्यन्त हास्य- कौतुक हमें गम्भीर चिन्तन के अयोग्य बना देता है। उससे मानसिक शक्ति व्यर्थ ही क्षय हो जाती हैं। इच्छाशक्ति जितनी दृढ़ होगी, मनुष्य विभिन्न भावों के उतना ही कम वशीभूत होगा। अत्यधिक आमोद उतना ही बुरा है, जितना गम्भीर उदासी का भाव। जब मन सामंजस्यपूर्ण, स्थिर और शान्त रहता है, तभी सब प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति सम्भव होती है।
इन्हीं सब साधनों द्वारा क्रमश: ईश्वर-भक्ति का उदय होता है।
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