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भक्तियोग
भक्तियोग
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ :
Ebook
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पुस्तक क्रमांक : 9558
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आईएसबीएन :9781613013427 |
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
सब प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव हमारे लिए परमावश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम केवल मनुष्यों के प्रति दया का भाव रखें और छोटे जानवरों को निर्दयता से मारते रहें, और न यही - जैसा कुछ लोग समझते हैं - कि हम कुत्ते और बिल्लियों की तो रक्षा करते रहें, चीटियों को शक्कर खिलाते रहें, पर इधर, जैसा बने वैसा अपने मानव-बन्धुओं का गला काटने के लिए बिना किसी झिझक के तैयार रहें। यह एक विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि संसार में जितने सुन्दर सुन्दर भाव हैं, यदि देश, काल और पात्र का विचार न करते हुए, आँखें बन्द कर उनका अनुष्ठान किया जाय, तो वे स्पष्ट रूप से दोष बन जाते हैं। कुछ धार्मिक सम्प्रदायों के मैले-कुचेले साधु इस विचार से कि कहीं उनके शरीर के जुएँ आदि मर न जायँ, नहाते तक नहीं। परन्तु उन्हें इस बात का कभी ध्यान भी नहीं आता कि ऐसा करने से वे दूसरों को कितना कष्ट देते हैं और कितनी बीमारियाँ फैलाते हैं! वे जो भी हो; पर कम से कम वैदिक धर्मावलम्बी तो नहीं हैं। अहिंसा की कसौटी है - ईर्ष्या का अभाव।
कोई व्यक्ति भले ही क्षणिक आवेश में आकर अथवा किसी अन्धविश्वास से प्रेरित हो या पुरोहितों के छक्केपंजे में पड़कर कोई भला काम कर डाले, अथवा खासा दान दे डाले, पर मानवजाति का सच्चा प्रेमी तो वह है, जो किसी के प्रति ईर्ष्या-भाव नहीं रखता। बहुधा देखा जाता है कि संसार में जो बड़े मनुष्य कहे जाते है, वे अक्सर एक दूसरे के प्रति केवल थोड़े से नाम, कीर्ति या चाँदी के चन्द टुकड़ों के लिए ईर्ष्या करने लगते हैं। जब तक यह ईर्ष्या-भाव मन में रहता है, तब तक अहिंसा-भाव में प्रतिष्ठित होना बहुत दूर की बात है। गाय मांस नहीं खाती, और न भेड़ ही; तो क्या वे बहुत बड़े योगी हो गये, अहिंसक हो गये? ऐरागैरा कोई भी कोई विशेष चीज खाना छोड़ दे सकता है। पर जिस प्रकार घास-फूस खानेवाले जानवरों को कोई विशेष उन्नत नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार वह भी कोई खाद्यविशेष त्याग देने से ही ज्ञानी या उन्नत स्वभाव का नहीं हो जाता। जो मनुष्य निर्दयता के साथ विधवाओं और अनाथ बालक-बालिकाओं को ठग सकता है और जो थोड़े से धन के लिए जघन्य से जघन्य कृत्य करने में भी नहीं हिचकता, वह तो पशु से भी गया-बीता है - फिर चाहे वह घास खाकर ही क्यों न रहता हो।
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