ई-पुस्तकें >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इस प्रकार का धर्म एक विशेष प्रकार का कोरा जड़वाद मात्र है। वह न तो ज्ञान है, न भक्ति और न कर्म, वह एक विशेष प्रकार का पागलपन- सा है। जो लोग खाद्याखाद्य के इस विचार को ही जीवन का सार कर्तव्य समझे बैठे हैं, उनकी गति ब्रह्मलोक में न होकर पागलखाने में होना ही अधिक सम्भव है। अतएव यह युक्ति-युक्त प्रतीत होता है कि खाद्याखाद्य का विचार मन की स्थिरतारूप उच्चावस्था लाने में विशेष रूप से आवश्यक है। अन्य किसी भी तरह यह स्थिरता इतने सहज ढंग से नहीं प्राप्त हो सकती। उसके बाद है 'विमोक' अर्थात् इन्द्रियनिग्रह - इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकना और उनको वश में लाकर अपनी इच्छा के अधीन रखना। इसे धार्मिक साधना की नींव ही कह सकते हैं।
फिर आता है 'अभ्यास', अर्थात् आत्मसंयम और आत्मत्याग का अभ्यास। हम लोग आत्मा में परमात्मा का कितने अद्भुत ढंग से अनुभव और कितने गम्भीर भाव से सम्भोग कर सकते हैं, इसकी भी क्या कोई सीमा है? पर साधक के प्राणपण प्रयत्न से और प्रबल संयम के अभ्यास बिना यह किसी भी तरह कार्य में परिणत नहीं किया जा सकता। ''मन में सदा प्रभु का ही चिन्तन चलता रहे।'' पहले-पहल यह बात बहुत कठिन मालूम होती है। पर अध्यवसाय के साथ लगे रहने पर इस प्रकार के चिन्तन की शक्ति धीरे धीरे बढ़ती जाती है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, ''हे कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से यह प्राप्त होता है।''
अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते। - गीता, 6/35
उसके बाद है 'क्रिया' अर्थात् यज्ञ। पंच महायज्ञों का नियमित रूप से अनुष्ठान करना होगा।
'कल्याण' अर्थात् पवित्रता ही एकमात्र ऐसी भित्ति है, जिस पर सारा भक्तिप्रसाद खड़ा है। बाह्य शौच और खाद्याखाद्यविचार ये दोनों सरल हैं, पर अन्तःशुद्धि बिना उनका कोई मूल्य नहीं। रामानुज ने अन्तःशुद्धि के लिए निम्नलिखित गुणों को उपायस्वरूप बतलाया है-
(1) सत्य, (2) आर्जव अर्थात सरलता, (3) दया अर्थात् निःस्वार्थ परोपकार, (4) दान, (5) अहिंसा अर्थात् मन, वचन और कर्म से किसी की हिंसा न करना, (6) अनभिध्या अर्थात् परद्रव्यलोभ, वृथा चिन्तन और दूसरे द्वारा किये गये अनिष्ट आचरण के निरन्तर चिन्तन का त्याग इन गुणों में से अहिंसा विशेष ध्यान देने योग्य है।
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